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________________ उत्तरज्झयणाणि ६. सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सामाइएणं सावज्जजोगविरइं जणयइ ।। १०. चउव्वीसत्थएवं भंते जीये कि जणयइ ? चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ || ११. वंदणएणं भंते! जीवे किं जणयइ ? वंदनएणं नीयागोय कम्म खवेद, उच्चगोयं निबंधइ । सोहग्गं च णं अपsिहयं आणाफलं निव्वतेइ, दाहिणभावं च णं जणयइ ।। १२. पडिक्कमणेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिद्दाइ पिहेइ । पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरिते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ | १३. काउस्सग्गेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? काउस्सग्गेण ती पडुप्पन्न पायच्छितं विसोहेड़ विसुद्धपायच्छिते य जीवे निव्बुबहियए ओहरियभारी व भारवहे पसत्थज्झाणीवगए सुहंसुहेण विहरइ || १४. पच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरुभइ ।। Jain Education International ४७४ सामायिकेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? सामायिकेन सावद्ययोगविरतिं जनयति ।। चतुर्विंशतिस्तयेन दर्शनधिशोधिं जनयति ।। चतुर्विंशतिस्तवेन भवन्त ! भंते! चतुर्विंशतिस्तव (चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? जीवः किं जनयति ? वन्दनकेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? वन्दनकेन नीचगोत्रं कर्म क्षपयति, उच्चगोत्रं निबध्नाति । सौभाग्यं चाऽप्रतिहतं आज्ञाफलं निर्वर्तयति, दक्षिणभांवं च जनयति ।। प्रतिक्रमणेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? प्रतिक्रमणेन व्रतच्छिद्राणि पिदधाति । पिहितव्र तच्छिद्र : पुनर्जीवो निरुखा वो बलचरित्रः अष्टसु प्रवचनमातृषु उपयुक्तो ऽपृथक्त्वः सुप्रणिहितो विहरति ।। कायोत्सर्गेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ? कायोत्सर्गेण अतीतप्रत्युत्पन्नं प्रायश्चित्तं विशोधयति । विशुद्धप्रायश्चित्तश्च जीवो निर्वृत हृदयो ऽपहृतभार इव भारवहः प्रशस्तव्यानोपगतः सुखं सुखेन विहरति ।। प्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? प्रत्याख्यानेनाश्रवद्वाराणि अध्ययन २६ : सूत्र ६-१४ भंते ! सामायिक (समभाव की साधना) से जीव क्या प्राप्त करता है ? निरुणद्धि ।। सामायिक से वह असत् प्रवृत्ति की विरति" को प्राप्त होता है । चतुविशति स्तव से यह दर्शन ( दर्शनाचार) की विशुद्धि को प्राप्त होता है। भंते! वन्दना से जीव क्या प्राप्त करता है ? वन्दना से वह नीच कुल में उत्पन्न करने वाले कर्मों को क्षीण करता है, ऊंचे-कुल में उत्पन्न होने वाले कर्म का अर्जन करता है। जिसकी आज्ञा को लोग शिरोधार्य करें वैसा अवाधित सौभाग्य और जनता की अनुकूल भावना को प्राप्त होता है। भंते! प्रतिक्रमण से जीव क्या प्राप्त करता है ? प्रतिक्रमण से " वह व्रत के छेदों को ढंक देता है। जिसने व्रत के छेदों को भर दिया वैसा जीव आश्रवों को रोक देता है, चारित्र के धब्बों को मिटा देता है, आठ प्रवचन माताओं में सावधान हो जाता है, संयम में एकरस हो जाता है और भलीभांति समाधिस्थ होकर विहार करता है। भंते! कायोत्सर्ग से जीव क्या प्राप्त करता है ? कायोत्सर्ग से वह अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्तोचित कार्यों का विशोधन करता है। ऐसा करने वाला व्यक्ति भार को नीचे रख देने वाले भार वाहक की भांति स्वस्थ हृदय वाला-हल्का हो जाता है और प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विहार करता है। भंते! प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? प्रत्याख्यान से वह आश्रव द्वारों (कर्म-वन्धन के हेतुओं) का निरोध करता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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