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सम्यक्त्व-पराक्रम
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अध्ययन २६ : सूत्र १५-२० १५. थवथुइमंगलेणं भंते ! जीवे किं स्तवस्तुतिमङ्गलेन भदन्त ! भंते! स्तव व स्तुति रूप मंगल से जीव क्या प्राप्त जणयइ। जीवः किं जनयति?
करता है? थवथुइमंगलेणं नाणदंसणचरि- स्तवस्तुतिमङ्गलेन ज्ञान- स्तव और स्तुति रूप मंगल से वह ज्ञान, त्तबोहिलाभं जणयइ। नाणदंस- दर्शनचरित्रबोधिलाभं जनयति। दर्शन और चारित्र की बोधि का लाभ करता है। णचरित्तबोहिलाभसंपन्ने य णं ज्ञानदर्शनचरित्रबोधिलाभसम्पन्न- ज्ञान, दर्शन और चारित्र के बोधि-लाभ से सम्पन्न जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणो- श्चजीवोऽन्तक्रियां कल्पविमानोप- व्यक्ति मोक्ष-प्राप्ति' या वैमानिक देवों में उत्पन्न
ववत्तिगं आराहणं आराहेइ।। पत्तिकामाराधनामाराधयति। होने योग्य आराधना करता है। १६.कालपडिलेहणयाए णं भंते! कालप्रतिलेखनेन भदन्त ! भंते ! काल-प्रतिलेखना (स्वाध्याय आदि के उपयुक्त जीवे किं जणयइ ? जीवः किं जनयति?
समय का ज्ञान करने) से जीव क्या प्राप्त करता है ? कालपडिलेहणयाए णं नाणा- कालप्रतिलेखनेन ज्ञानावर- काल-प्रतिलेखना से वह ज्ञानावरणीय कर्म वरणिज्जं कम्मं खवेइ।। णीयं कर्म क्षपयति।।
को क्षीण करता है। १७. पायच्छित्तकरणेणं भंते ! जीवे प्रायश्चित्तकरणेन भदन्त ! भंते। प्रायश्चित्त करने से जीव क्या प्राप्त करता किं जणयइ?
जीवः किं जनयति? पायच्छित्तकरणेणं पावकम्म- प्रायश्चित्तकरणेन पापकर्म- प्रायश्चित्त करने से वह पाप-कर्म की विशुद्धि विसोहिं जणयइ, निरइयारे विशोधिं जनयति, निरतिचार- करता है और निरतिचार हो जाता है। सम्यक्-प्रकार यावि भवइ। सम्मं च णं श्चापि भवति। सम्यक् च से प्रायश्चित्त करने वाला मार्ग (सम्यक्त्व)२५ और पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानो मार्ग च मार्ग-फल (ज्ञान) को निर्मल करता है और आचार च मग्गफलं च विसोहेइ, आयारं मार्गफलं च विशोधयति, आचार- (चारित्र) और आचार-फल (मुक्ति) की आराधना
च आयारफलं च आराहेइ।। चाचारफलञ्चाराधयति।। करता है। १८.खमावणयाए णं भंते ! जीवे क्षमणया भदन्त ! जीवः किं भंते ! क्षमा करने से जीव क्या प्राप्त करता है? कि जणयइ?
जनयति?
खमावणयाए णं पल्हायणभावं क्षमणया प्रहलादनभावं क्षमा करने से वह मानसिक प्रसन्नता को जणयइ। पल्हायणभावमुवगए य जनयति। प्रहलादनभावमुपगतश्च प्राप्त होता है। मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त हुआ सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु मित्ती- सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वेषु मित्रीभाव- व्यक्ति सब प्राण, भूत, जीव और सत्वों के साथ भावमुष्पाएइ। मित्तीभावमुवगए मुत्पादयति। मित्रीभावमुपगतश्चापि मैत्री-भाव उत्पन्न करता है। मंत्री भाव को प्राप्त यावि जीवे भावविसोहिं काऊण जीवः भावविशोधिं कृत्वा निर्भयो हुआ जीव भावना को विशुद्ध बनाकर निर्भय हो निब्भए भवइ।।
भवति।। १६. सज्झाएणं भंते! जीवे किं स्वाध्यायेन भदन्त ! जीवः भंते ! स्वाध्याय से जीव क्या प्राप्त करता है? जणयइ?
किं जनयति? सज्झाएण नाणावरणिज्ज कम्म स्वाध्यायेन ज्ञानावरणीयं स्वाध्याय से वह ज्ञानावरणीय कर्म को क्षीण खवेइ। कर्म क्षपयति।।
करता है। २०.वायणाए णं भंते! जीवे किं वाचनया भदन्त ! जीवः भते! वाचना (अध्यापन) से जीव क्या प्राप्त करता जणयइ ?
किं जनयति? वायणाए णं निज्जरं जणयइ, वाचनया निर्जरां जनयति, वाचना से वह कों को क्षीण करता है। श्रुत सुयस्स य अणासायणाए वहए। श्रुतस्य घानाशातनायां वर्तते। की उपेक्षा के दोष से बच जाता है। इस उपेक्षा के सुयस्स अणासायणाए वट्टमाणे
श्रुतस्य अनाशातनायां वर्तमानः दोष से बचने वाला तीर्थ-धर्म का अवलम्बन करता तित्थधम्म अवलंबइ। तित्थधम्म
तीर्थधर्ममवलम्बते। तीर्थधर्म- है"---श्रुत देने में प्रवृत्त होता है। तीर्थ-धर्म का अवलंबमाणे महानिज्जरे महा
मवलम्बमानो महानिर्जरो महापर्य- अवलम्बन करने वाला कर्मों और संसार का अन्त पज्जवसाणे भवइ।। वसानो भवति।।
करने वाला होता है।
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