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सम्यक्त्व- पराक्रम
५. गुरुसाहम्मियसुस्सूसणवाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ?
गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए गं विणयपडिवत्तिं जणयइ। विणयपडिवन्ने य णं जीवे अणच्चासायणसीले नेरइयतिरिक्खजो नियमणुस्सदेवदोग्गईओ निरुभइ, वण्णसं जलणभत्तिबहुमाणयाए मणुस्सदेवसोग्गाईओ निबंध, सिद्धिं सोग्गदं च विसोहेद पसत्थाई च णं विणयमूलाई सव्वकज्जाई साहेइ । अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ ।। ६. आलोयणाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ?
आलोयणाए णं मायानियाणमिच्छादंसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अनंतसंसारवद्भणाणं उद्धरणं करेइ, उज्जुभावं च जय । उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाई इत्थीवेयनपुंसगवेयं च न बंधइ पुव्वबद्धं च णं निज्जरेइ ||
७. निंदणवाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ?
निंदणयाए णं पच्छातावं जणयइ । पच्छातावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेकि पडिवञ्जइ । करणगुणसेढिं पडिवन्ने य णं अणगारे मोहणि कम्म उग्घाएइ ।।
८. गरहणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ?
गरहणयाए णं अपुरक्कारं जणयइ । अपुरक्कारगए णं जीवे अप्पसत्येहिंतो जोगेहिंतो नियत्तेइ । पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अनंतघाइपज्जवे खवेइ ||
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गुरुसाधार्मिकशुश्रूषणया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
गुरुसाधर्मिकशुश्रूषणया विनयप्रतिपत्तिं जनयति । विनयप्रतिपन्नश्च जीवः अनत्याशातनशीलो नैरकितिर्यग्योनिकमनुष्यदेवदुर्गती निरुणद्धि, वर्णसंञ्चल नभक्तिबहुनिरुपछि वर्णसंचलनभक्तिव मानेन मनुष्यदेवसुमती निबरनाति, सिद्धिं सुगतिं च विशोधयति । प्रशस्तानि च विनयमूलानि सर्वकार्याणि साधयति । अन्यांश्च बहून् जीवान् विनेता भवति ।।
आलोचनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
आलोचनया मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यानां मोक्षमार्गविध्नानामनन्तसंसारवर्द्धनानामुद्धरणं करोति, ऋजुभावं च जनयति । प्रतिपन्नर्जुभावश्च जीवोऽमायी स्त्रीवेदं नपुंसक वेदं च न बध्नाति पूर्वबद्धं च निर्जरयति ।।
निन्दनेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
निन्दनेन पश्चादनुतापं जनयति । पश्चादनुतापेन विरज्यमानः करणगुणश्रेणिं प्रतिपद्यते । करणगुणश्रेणिं प्रतिपन्नश्चानगारो मोहनीय कर्मोदयातयति.
अध्ययन २६ : सूत्र ५-८
भंते! गुरु और साधर्मिक (समान आचार और समान सामाचारी वाला मुनि) की शुश्रूषा (पर्युपासना) से जीव क्या प्राप्त करता है ?
गर्हणेनापुरस्कार जनयति । अपुरस्कारगतो जीवोऽप्रशस्तेभ्यो योगेभ्यो निवर्तते । प्रतिपन्नप्रशस्तयोगश्च अनगारो ऽनन्तघातिपर्यवान् क्षपयति ।।
गुरु और साधर्मिक की शुश्रूपा से वह विनय को प्राप्त होता है। विनय को प्राप्त करने वाला व्यक्ति गुरु का अविनय या परिवाद करने वाला नहीं होता, इसलिए वह नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है। गुरु की श्लाघा, गुण- प्रकाशन, भक्ति और बहुमान के द्वारा मनुष्य और देव - सम्बन्धी सुगति से सम्बन्ध जोड़ता है तथा सिद्धि सुगति का मार्ग प्रशस्त करता है । वह विनय-मूलक सब प्रशस्त कार्यों को सिद्ध करता है और दूसरे बहुत व्यक्तियों को विनय के पथ पर ले आता है 1
भंते! आलोचना ( गुरु के सम्मुख अपनी भूलों का निवेदन करने) से जीव क्या प्राप्त करता है ?
आलोचना से वह अनन्त संसार को बढ़ाने वाले, मोक्ष मार्ग में विघ्न उत्पन्न करने वाले, माया, निदान तथा मिथ्या दर्शन- शल्य को निकाल फेंकता है और ऋजु भाव को प्राप्त होता है। ऋजु-भाव को प्राप्त हुआ व्यक्ति अमायी होता है, इसलिए वह स्त्री वेद और नपुंसक वेद कर्म का बन्ध नहीं करता और यदि वे पहले वन्धे हुए हों तो उनका क्षय कर देता है।
भंते ! निन्दा (अपनी भूलों के प्रति अनादर का भाव प्रकट करने) से जीव क्या प्राप्त करता है ?
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निन्दा से वह पश्चात्ताप को प्राप्त होता है उसके द्वारा विरक्त होता हुआ मोह को क्षीण करने में समर्थ परिणाम धारा-करण गुणश्रेणी (क्षपक श्रेणी) को " प्राप्त करता है। वैसी परिणाम-धारा को प्राप्त हुआ अनगार मोहनीय कर्म को क्षीण कर देता है।
गर्हणेन भदन्त ! जीवः किं भंते! गर्हा ( दूसरों के समक्ष अपनी भूलों को प्रकट जनयति ? करने से ) से जीव क्या प्राप्त करता है ?
ग से वह अनादर को प्राप्त होता है। अनादर को प्राप्त हुआ वह अप्रशस्त प्रवृत्तियों से निवृत्त होता है और प्रशस्त प्रवृत्तियों को अंगीकार करता है। वैसा अनगार आत्मा के अनन्त - विकास का घात करने वाले ज्ञानावरण आदि कर्मों की परिणतियों को क्षीण करता है।
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