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________________ उत्तरज्झयणाणि ४७२ अध्ययन २६ : सूत्र २-४ फासिंदियनिग्गहे ६६ कोहविजए ६७ माणविजए ६८ मायाविजए ६६ लोहविजए ७० पेज्जदोसमिच्छादसणविजए ७१ सेलेसी ७२ अकम्मया ७३ स्पर्शेन्द्रियनिग्रहः ६६ क्रोधविजयः ६७ मानविजयः ६८ मायाविजयः ६६ लोभविजयः ७० प्रेयोदोषमिथ्यादर्शनविजयः ७१ शैलेशी ७२ अकर्मता ७३ स्पर्शनेन्द्रियनिग्रह ६६ क्रोधविजय ६७ मानविजय ६८ मायाविजय ६६ लोभविजय ७० प्रेयोद्वेषमिथ्यादर्शनविजय ७१ शैलेशी ७२ अकर्मता ७३ २. संवेगेणं भंते ! जीवे किं संवेगेन भदन्त ! जीवः किं भंते ! संवेग (मोक्ष की अभिलाषा) से जीव क्या जणयइ? जनयति? प्राप्त करता है? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं संवेगेनानुत्तरां धर्मश्रद्धा संवेग से वह अनुत्तर धर्म-श्रद्धा को प्राप्त जनयति। अनुत्तरया धर्मश्रद्धया होता है। अनुत्तर धर्म-श्रद्धा से तीव्र संवेग को प्राप्त संवेगं हव्वमागच्छइ, अणंताणु- संवेगं शीघमागच्छति, अनन्तानु- करता है, अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया और बंधिकोहमाणमायालोभे खवेइ, बन्धि क्रोधमानमायालोभान् क्षपयति, लोभ का क्षय करता है, नये कर्मों का संग्रह नहीं कम्मं न बंधइ, तप्पच्चइयं च कर्म न बध्नाति, तत् प्रत्ययिकां च करता, कषाय के क्षीण होने से प्रकट होने वाली णं मिच्छत्तविसोहिं काऊण मिथ्यात्वविशोधिं कृत्वा दर्शनाराधको मिथ्यात्वविशुद्धि कर दर्शन (सम्यक् श्रद्धान) की दंसणाराहए भवइ । दंसणविसो- भवति। दर्शनविशोध्या च विशु- आराधना करता है। दर्शन-विशोधि के विशुद्ध होने हीए य णं विसद्धाए अत्थेगइए द्धोऽस्त्येककः तेनैव भवग्रहणेन पर कई एक जीव उसी जन्म से सिद्ध हो जाते हैं तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ। सिध्यति। विशोध्या च विशुद्धः और कुछ उसके विशुद्ध होने पर तीसरे जन्म का सोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं तृतीय पुनर्भवग्रहणं नातिकामति।। अतिक्रमण नहीं करते-उसमें अवश्य ही सिद्ध हो पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ।। जाते हैं। ३. निव्वेएणं भंते ! जीवे कि निवेदेन भदन्त ! जीवः किं भंते ! निर्वेद (भव-वैराग्य) से जीव क्या प्राप्त करता जणयइ? जनयति? निव्वेएणं दिव्वमाणुसतेरिच्छिएसु निवेदेन दिव्यमानुषतैरश्च- निर्वेद से बह देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी कामभोगेसु निव्वेयं हव्वमागच्छइ, केषु कामभोगेपु निवेदं शीघमा- काम-भोगों में तीव्र ग्लानि को प्राप्त होता है, सब सव्वविसएसु विरज्जइ। सव्व- गच्छति, सर्वविषयेषु विरज्यति। विषयों में विरक्त हो जाता है। सव विषयों से विरक्त विसएस विरज्जमाणे आरंभ- सर्वविषयेषु विरज्यमानः आरम्भ- होता हुआ वह आरम्भ का परित्याग करता है। परिच्चायं करेड। आरंभ- परित्यागं करोति। आरम्भ परित्यागं आरम्भ का परित्याग करता हुआ संसारमार्ग का परिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं कुर्वाण: संसारमार्ग व्युच्छिनत्ति, विच्छेद करता है और सिद्धि-मार्ग को प्राप्त होता है।" वोच्छिदइ, सिद्धिमग्गे पडिवन्ने सिद्धिमार्ग प्रतिपन्नश्च भवति।। य भवइ।। ४. धम्मसद्धाए णं भंते ! जीवे किं धर्मश्रद्धया भदन्त ! जीवः भंते! धर्मश्रद्धा से जीव क्या प्राप्त करता है? जणवइ? किं जनयति? धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु धर्मश्रद्धया सातसौख्येषु धर्मश्रद्धा से वह वैषयिक सुखों की आसक्ति रज्जमाणे विरज्जइ, अगारधम्म रज्यमानः विरज्यति, अगारधर्म को छोड़ विरक्त हो जाता है, अगार-धर्म-गृहस्थी' च णं चयइ। अणगारे णं जीवे च त्यजति। अनगारो जीवः को त्याग देता है। वह अनगार होकर छेदन-भेदन सारीरमाणसाणं दुक्खाणं शरीरमानसानां दुःखानां छेदनभेदन आदि शारीरिक दु:खों तथा संयोग-वियोग आदि छेयणभेयणसंजोगाईणं वोच्छेयं संयोगादीनां व्युच्छेदं करोति मानसिक दुःखों का विच्छेद करता है और निर्बाध (बाधा-रहित) सुख को प्राप्त करता है। करेइ अव्वाबाहं च सुहं निव्वत्तेइ।। अव्यावाधं च सुखं निवर्तयति।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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