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________________ उत्तरण्झयणाणि हैं बौद्ध तपस्या का खण्डन करते हैं और दूसरी ओर 'किसं धमनिसन्थतं' को अच्छा बताते हुए उसे ब्राह्मण का लक्षण मानते । इसका क्या कारण है? इस प्रयोग को तथा मज्झिमनिकाय ( १२।६।१६ / २० ) के विवरण को देखने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि बौद्धों पर जैन साहित्य और तपस्या-विधि का प्रभाव रहा है। भागवत में भी एवं चीर्णेन तपसा मुनिधर्मनिसन्ततः ऐसा प्रयोग आया है।' इससे यह प्रतीत होता है कि तीनों (जैन, बौद्ध और वैदिक) धार्मिक परम्पराओं में कुछ रेखाएं समान रूप से खींची हुई हैं। ६. अहिंसक या करुणाशील (दोगुंछी) ४० 'दोगुछी' शब्द का संस्कृत रूपान्तरण है— जुगुप्सी। इसका शाब्दिक अर्थ है- घृणा करने वाला अथवा करुणा करने वाला । मुनि हिंसा से, अनाचार से घृणा करता है। मुनि जब प्यास से आक्रान्त भी हो जाए तब भी वह सचित्त जल का सेवन न करे, क्योंकि वह अहिंसक है। सचित्त जल का सेवन करना अनाचार है, हिंसा है। वह हिंसा से घृणा करता है अथवा प्राणी मात्र के प्रति अहिंसक व्यवहार करता है। इसलिए भावार्थ में 'दोगुंछी' का अर्थ अहिंसक होता है। चूर्णि में असंयम से जुगुप्सा करने वाले को 'दोगुंछी' कहा है । ७. सचित्त पानी (सीओदगं) 1 शीत का अर्थ है ठण्डा । शीत - उदक- यह स्वरूपस्थ ( शस्त्र से अनुपहत या सजीव) जल का सूचक है। डॉ. हरमन जेकोबी ने इसका अर्थ Cold Water 'ठण्डा पानी' किया है यह शब्द का लाक्षणिक अर्थ है, भ्रामक भी है। ठण्डा पानी सचित्त भी हो सकता है और अचित्त भी। यहां सचित्त अर्थ अभिप्रेत है। ८. प्रासुक जल की एषणा (वियडस्से सण) बृहद्वृत्तिकार ने 'वियड' का संस्कृत रूप 'विकृत' देकर, इसका अर्थ अग्नि आदि से संस्कारित किया है। प्रस्तुत प्रसंग में यह अचित्त या निर्जीव जल के लिए प्रयुक्त है ।" 'वियड' देशी शब्द है। ९. प्यास का परीषह पिता और पुत्र दोनों प्रव्रजित हो गए। एक बार वे मध्यान्ह में विहार कर एक नगर की ओर प्रस्थित हुए । रास्ते में भयंकर अटवी थी। छोटे मुनि को प्यास लगी और वह अपने १. भागवत, ११।१८/६ । २. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ५४ दुर्गुछत्तीति दोगुंछी, अस्संजम दुगुंछती । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ८६ शीतं शीतलं, स्वरूपस्थतोयोपलक्षणमेतत्, ततः स्वकीयादिशस्वानुपहतं । ४. वही, पत्र ८६ वियडस्स त्ति विकृतस्य वन्हूयादिना विकारं प्रापितस्य Jain Education International अध्ययन ५: श्लोक ५ टि० ७-१० पिता ( मुनि) के पीछे धीरे-धीरे चलने लगा । अन्यान्य मुनि भी साथ थे। रास्ते में एक नदी आ गई। पिता मुनि ने स्नेह से अभिभूत होकर अपने पुत्र मुनि को कहा - " वत्स ! नदी का पानी पीकर प्यास बुझाओ। फिर प्रायश्चित्त कर लेना।" पिता-मुनि नदी में उतरा। उसने सोचा- मैं कुछ आगे चलूं, जिससे कि यह बाल मुनि पानी पी ले। कहीं मेरी आशंका से यह पानी न पीएऐसा सोचकर वह एक ओर चला गया। बाल मुनि नदी में उतरा। उसका मन कुछ शिथिल हुआ। उसने अंजलि में पानी लिया। उसकी विवेक चेतना जागी । उसने मन ही मन सोचा - 'ओह! कैसे पीऊं इन जीवों को?" भगवान् ने कहा है एकम्मि उदगबिंदुग्मि, जे जीवा जिनवरेहिं पन्नता । ते पारेवयमेत्ता, जंबूद्दीवे ण माएज्जा ।। जत्थ जलं तत्थ वर्ण, जत्थ वणं निच्छिओ तेऊ । तेऊ वाउसहगओ, तसा य पच्चक्खया चेव ।। या हंतून परप्याने, अप्पान जो करेइ सप्यान अप्पाणं दिवसाणं, कएण नासेइ सप्पाणं ।। बाल मुनि को अत्यन्त विरक्ति हो गई। उसने सोचा- मैं अपने अल्प जीवितव्य के लिए इतने प्राणियों की हत्या करूंयह मेरे लिए उचित नहीं है। यह सोचकर वह वहां से प्यासा ही चला। नदी पार की प्यास बढ़ती ही गई। मृत्यु को निकट जानकर उसने एक वृक्ष के नीचे विश्राम किया और नमस्कार महामंत्र का जाप करते-करते दिवंगत हो गया। | सभी मुनियों ने बाल मुनि की धृति को सराहा और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। १०. रूक्ष शरीर वाले साधु को (लूह) शीत परीषह के संदर्भ में 'रूक्ष' शब्द का प्रयोग अर्थ-सूचक है। स्निग्धता शरीर में गर्मी पैदा करती है, इसलिए स्निग्ध शरीर वाले को सर्दी कम सताती है। मुनि रूक्ष शरीर वाला है, वह विचरणशील है और वह विरत' अग्नि के समारंभ तथा गृह-व्यापार से मुक्त है— प्रस्तुत श्लोक में उल्लिखित ये तीनों अवस्थाएं शीतस्पर्श को प्रखर बनाने वाली हैं। शरीर की रूक्षता के दो कारण हैं— स्निग्ध भोजन का अभाव और स्नान आदि का अभाव। जो मुनि निरंतर रूक्ष भोजन करता है, स्नान नहीं करता, उसका शरीर रूक्ष-सूखा हो जाता है। रूक्ष शरीर वाले को शीत, आतप आदि सताते हैं। रूक्ष आहार से मूत्र की अधिकता होती है, बार-बार शंका प्रासुकस्येति यावत् प्रक्रमादुदकस्य । सुखबोधा, पत्र १६ । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५६ : विरतं अग्गिसमारंभातो गृहारंभातो वा, बाह्याभ्यंतरस्नेहपरिहारा । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ८८ लूहं ति स्नानस्निग्धभोजनादिपरिहारेण रूक्षम् । ५. ६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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