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उत्तरज्झयणाणि
(१७)
भूमिका
उत्तर प्राप्त नहीं है। चूर्णि और बृहद्वृत्ति में भी नहीं है। अन्य किसी साधन से भी प्रस्तुत सूत्र के कर्ता का नाम ज्ञात नहीं हो सका है। इसके रचना-काल की मीमांसा से हम इतना जान सकते हैं कि ये अध्ययन विभिन्न युगों में हुए अनेक ऋषियों द्वारा उद्गीत हैं।
सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि दर्शन ई. पू. ५ वीं शताब्दी से लेकर ई. पू. पहली शताब्दी तक व्यवस्थित रूप धारण कर चुके थे। भगवद्गीता ओर उत्तरवर्ती उपनिषदों का निर्माण ई. पू. ५०० के लगभग हुआ था। आत्मा, पुनर्जन्म, मोक्ष, कर्म, संसार की क्षणभंगुरता, वैराग्य व संन्यास की चर्चा इस युग में विशेष विकसित हुई थी।
उत्तराध्ययन में हम ई. पू. ६०० से ई. सन् ४०० तक की धार्मिक व दार्शनिक धारा का प्रतिनिधित्व या विकास पाते हैं। हो सकता है कि इनका कुछ अंश महावीर से पहले का भी हो। चूर्णि में ऐसा संकेत भी मिलता है कि उत्तराध्ययन का छठा अध्ययन भगवान् पार्श्व द्वारा उपदिष्ट
समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया।"
सोलहवें अध्ययन का प्रारम्भिक वाक्य है-सुयं मे, आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरिहिं भगवतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पण्णत्ता।"
उनतीसवें अध्ययन का प्रारम्भिक वाक्य है---'सुयं मे, आउसं! तेणं भगवया एवमाक्खायं-इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए।"
इन प्रारंभिक वाक्यों से फलित होता है कि दूसरा और उनतीसवां अध्ययन महावीर द्वारा निरूपित है अर्थात् जिन-भाषित है और सोलहवां अध्ययन स्थविर-विरचित है।
नियुक्ति में दूसरे अध्ययन को कर्मप्रवाद-पूर्व से निर्मूढ़ माना गया है और इसके प्रारम्भिक वाक्य से यह फलित होता है कि यह जिन-भाषित है।
नियुक्तिकार के चार वर्गों से कर्तृत्व पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता, किन्तु विषय-वस्तु पर प्रकाश पड़ता है। दसवें अध्ययन का विषय-वस्तु भगवान् महावीर द्वारा कथित है। किन्तु उस अध्ययन के कर्ता भगवान् महावीर नहीं हैं यह उस अध्ययन के अंतिम वाक्य-'बुद्धस्स निस्सम भासियं'-से स्पष्ट है। इसी प्रकार दूसरे और उनतीसवें अध्ययन के प्रारम्भिक वाक्यों से भी यही तथ्य प्रकट होता है। छठे अध्ययन के अंतिम श्लोक से भी यही सूचित होता हैएवं से उदाहु अणुतरनाणी अणुतरदंसी अणुतरनाणदसणधरे। अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए।। (६।१७)
प्रत्येकबुद्ध-भाषित अध्ययन प्रत्येकबुद्ध-विरचित नहीं है। आठवें अध्ययन के अंतिम श्लोक से इस अभिमत की पुष्टि होती हैइइ एस धम्मे अक्खाए कविलेणं च विसुद्धपन्नेणं। तरिहिंति जे उ काहिंति तेहिं आराहिया दुवे लोगे।।
(८/२०) संवाद-समुत्थित अध्ययन, नवां और तेईसवां भी नमि तथा केशि-गौतम द्वारा विरचित नहीं हैं। इसका समर्थन भी उनके अन्तिम श्लोकों से होता हैएवं करेंति संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा। विणियटॅति भोगेसु जहा से नमी रायरिसि।। (६६२) तोसिया परिसा सव्वा सम्मग्गं समुवट्ठिया। संथुया ते पसीयंतु भयवं केसिगोयमे ।। (२३८६)
इस प्रकार हम देखते हैं कि नियुक्तिकार के चार वर्गों से इतना ही फलित होता कि भगवान महावीर, कपिल, नमि और केशि-गौतम-इनके उपदेशों, उपदेश-गाथाओं या संवादों को आधार बनाकर ये अध्ययन रचे गए हैं। ये कब और किसके द्वारा रचे गए-इस प्रश्न का नियुक्ति में कोई १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १५७ : केचिदन्यथा पठन्ति
एवं से उदाहु, अरहा पासे पुरिसादाणीए। भगवंते वेसालिए, बुद्धे परिणिब्बुडे।।
'दशवैकालिक' वीर निर्वाण की पहली शताब्दी की रचना है। उत्तराध्ययन एक ग्रन्थ के रूप में इससे पूर्व संकलित हो चुका था। उस समय उसके अध्ययन कितने थे, यह निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता।
वीर-निर्वाण की दसवीं शताब्दी (६८०-९६३) में देवर्द्धिगणी ने आगमों का संकलन किया था। उन्होंने उत्तराध्ययन के आकार-प्रकार व विषय-वस्तु में कोई अभिवृद्धि की या नहीं की, इसका प्रत्यक्ष उल्लेख प्राप्त नहीं है, किन्तु नहीं की, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। अतः उत्तराध्ययन को हम एक सहस्राब्दी की विचारधारा का प्रतिनिधि सूत्र कह सकते हैं। इसमें जहां वेद और ब्राह्मण-साहित्य-कालीन यज्ञ और जातिवाद की चर्चा है, वहां द्रव्य, गुण और पर्याय की परिभाषाएं भी हैं। उन परिभाषाओं को दर्शनकालीन (ई. पू. ५ वीं से ई. पू. पहली शताब्दी) माना जाए तो यह निष्पन्न होता है कि उत्तराध्ययन के अध्ययन विभिन्न कालों में निर्मित हुए और अंतिम वाचना के समय देवर्द्धिगणी ने उनका छत्तीस अध्ययनात्मक एक ग्रंथ के रूप में संकलन किया। इसीलिए समवायांग के छत्तीस उत्तर-अध्ययनों के नाम उल्लिखित हुए। अन्यथा अंग-साहित्य में इनका उल्लेख संभव नहीं होता। वर्तमान संकलन को सामने रखकर हम चिन्तन करें तो उत्तराध्ययन के संकलयिता देवर्द्धिगणी हैं। इसके प्रारंभिक संकलन और देवर्द्धिगणी कालीन संकलन में अध्ययनों की संख्या और विषय-वस्तु में पर्याप्त अन्तर आता है।
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