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________________ भामका (२४) उत्तरज्झयणााण दाक्षिणात्या। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंशइन छह प्राकृतों का उल्लेख किया है। षड्भाषाचन्द्रिका' में प्राकृत के ये ही छह विभाग मिलते हैं। वहां महाराष्ट्र की भाषा को प्राकृत, शूरसेन (मथुरा के आसपास के प्रदेश) की भाषा को शौरसेनी, मगध की भाषा को मागधी, पिशाच (पाण्ड्य, केकय आदि देशों) की भाषा को पेशाची और चूलिका पैशाची तथा आभीर आदि देशों की भाषा को अपभ्रंश कहा गया है। भगवान् महावीर अर्द्धमागधी भाषा में बोलते थे। आगमों में स्थान-स्थान पर यही उल्लेख मिलता है। प्राचीन जैन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी और मागधी रही है। क्षेत्र की दृष्टि से अर्द्धमागधी उस भाषा का नाम है, जो आधे मगध में अर्थात् मगध के पश्चिमी भाग में व्यवहृत थी। इसमें मागधी भाषा के लक्षण प्राप्त थे, इसलिए प्रवृत्ति की दृष्टि से भी संभव है इसे अर्द्धमागधी कहा गया। भाषा-शास्त्रियों के अनुसार मागधी की तीन मुख्य विशेषताएं भी प्राप्त कर लिया। महाकवि दण्डी ने भी इसका उल्लेख किया है-'महाराष्ट्राश्रयां, प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः।" फिर भी जैन आचार्यों को आगमों की मूल भाषा की विस्मृति नहीं हुई। वे समय के विविध परिवों में भी इसी तथ्य की पुनरावृत्ति करते रहे हैं कि आगमों की मूल भाषा अर्द्धमागधी है। प्रज्ञापना में अर्द्धमागधी भाषा बोलने वाले को 'भाषा-आर्य' कहा गया है। स्थानांग और अनुयोगद्वार में संस्कृत तथा प्राकृत को ऋषिभाषित कहा गया है। आचार्य हरिभद्र सूरि ने भाषा-आर्य की व्याख्या में संस्कृत और जोड़ा है। कुछ आचार्य पूर्वो की भाषा भी संस्कृत मानते हैं। इन सब तथ्यों के अध्ययन के उपरान्त भी हम इस तथ्य की विस्मृति नहीं कर सकते कि प्राचीन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी थी। अर्द्धमागधी और महाराष्ट्री उत्तराध्ययन की भाषा महाराष्ट्री से प्रभावित अर्द्धमागधी है। अर्द्धमागधी और महाराष्ट्री का अन्तर निम्न प्रकार है : अर्द्धमागधी असंयुक्त 'क' को 'ग' या 'त' होता हैकुमारगा (१४।११) लोगो (१४।२२) असंयुक्त 'ग' का लुक् नहीं होताकामभोगेसु (१४।६) सगरो (१८३५) असंयुक्त 'च' और 'ज' के तकार-बहुल प्रयोग मिलते हैंतेगिच्छं (२३३) वितिगिच्छा (१६ । सू. ४) असंयुक्त 'त' का प्रायः लुकू नहीं होताअतरं (८६) (१) प्रथम विभक्ति में एकवचन में 'ओकर' के स्थान पर 'एकार होना। (२) 'र' का 'ल' होना। (३) 'ष', 'स' के स्थान पर 'श' होना। अर्द्धमागधी में प्रथम विशेषता बहुलता से मिलती है, दूसरी कहीं-कहीं मिलती है और तीसरी प्रायः नहीं मिलती। जब जैन मुनि पूर्वी भारत से हट कर पश्चिमी भारत में विहार करने लगे तब उनकी मुख्य भाषा महाराष्ट्री-प्राकृत हो गई। अर्द्धमागधी और मागधी के लिखे हुए आगम भी उससे प्रभावित हुए। प्राकृत के रूपों में महाराष्ट्री ने उत्कर्ष १. नाट्यशास्त्र, १७॥४८ : मागध्यवन्तिजा प्राच्या शौरसेन्यर्द्धमागधी। वाल्हीका दाक्षिणात्याश्च सप्तभाषाः प्रकीर्तिताः ।। षडूभाषाचन्द्रिका, उपोद्घात : षड्विधा सा प्राकृती च शौरसेनी च मागधी। पैशाची चूलिकापैशाच्यपभ्रंश इति क्रमात् ।। तत्र तु प्राकृतं नाम महाराष्ट्रोद्भवं विदुः। शूरसेनोद्भवा भाषा शौरसेनीति गीयते ।। मगधोत्पन्नभाषां तां मागधी संप्रचक्षते। पिशाचदेशनियतं पैशाचीद्वितयं भवेत् ।। पाण्डयकेकयवाल्हीक सिंह नेपाल कुन्सलाः । सुधेष्णभोजगान्धारहवकन्नोजकास्तथा।। एते पिशाचदेशाः स्युस्तद्देश्यस्तद्गुणो भवेत् । पिशाचजातमधवा पैशाचीद्वयमुच्यते।। अपभ्रंशस्तु भाषा स्यादाभीरादिगिरां चयः। रण्णो भंभसारपुत्तस्स.....अद्धमागहाए भासाए भासइ.......। (ख) समवाओ समवाय ३४ : भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ (२२)। काव्यादर्श, १३४। प्रज्ञापना, पद १, सूत्र ३७ : भासारिया जे ण अद्धमागहाए भासाए भासेति। ६. ठाणं, ७/४८ गाथा १०: सक्कता पगता चेव, दोण्णि य भणिति आहिया। सरमंडलंमि गिज्जंते, पसत्था इसिभासिता।। ७. अणुओगदाराई, सूत्र ३०७ गाथा ११ : सक्कया पायया चेव, भणितिओ होंति दोण्णि वि सरमंडलम्मि गिज्जंते, पसत्था इसिभासिया।। तत्त्वार्थ सूत्र ३१५, हारिभद्रीय वृत्ति पृ. १८०: शिष्टा:--सर्वातिशयसम्पन्ना गणधरादयः तेषां भाषा संस्कृता ऽर्धमागधिकादिका च। ६. प्रभावक चरित, पृ. ५८, वृद्धवादिसूरि चरित, श्लोक ११३ : चतुर्दशापि पूर्वाणि संस्कृतानि पुराऽभवन् । ..................।। ३. (क) ओवाइयं, सूत्र ७१ : तए णं समणं भगवं महावीरे कूणियस्स Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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