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________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ४७७ अध्ययन २६ : सूत्र २६-३२ एकाग्रमनःसंनिवेशनेन भदन्त ! जीवः किं जनयति? भंते ! एक अग्र (आलम्बन) पर मन को स्थापित करने से जीव क्या प्राप्त करता है? २६.एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं चित्तनिरोहं करेइ।। एकाग्रमनःसंनिवेशनेन चित्तनिरोधं करोति।। एकाग्रमन की स्थापना से वह चित्त का निरोध करता है। भंते ! संयम से जीव क्या प्राप्त करता है? २७.संजमेणं भंते ! जीवे किं संयमेन भदन्त ! जीवः किं जणयइ? जनयति संजमेणं अणण्हयत्तं जणयइ।। संयमेन अनास्नवत्वं जनयति।। संयम से वह आश्रव का निरोध करता है। २८.तवेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? तपसा भदन्त ! जीवः किं जनयति? भंते ! तप से जीव क्या प्राप्त करता है? तवेणं वोदाणं जणयइ।। तपसा व्यवदानं जनयति।। तप से वह व्यवदान–पूर्वसंचित कमों को क्षीण कर विशुद्धि को प्राप्त होता है। २६.वोदाणेणं भंते ! जीवे किं व्यवदानेन भदन्त ! जीवः किं भंते ! व्यवदान से जीव क्या प्राप्त करता है ? जणयइ? जनयति? वोदाणेणं अकिरियं जणयइ। व्यवदानेन अक्रियां जनयति। व्यवदान से वह अक्रिया (मन, वचन और अकिरियाए भवित्ता तओ पच्छा अक्रियाको भूत्वा ततः पश्चात् शरीर की प्रवृत्ति के पूर्ण निरोध) को प्राप्त होता है, सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परि- सिध्यति, 'बुज्झइ' मुच्यते, वह अक्रियावान् होकर सिद्ध होता है, प्रशान्त होता निव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत होता है और दुःखों का करेइ।। करोति।। अन्त करता है। ३०.सुहसाएणं भंते ! जीवे किं सुखशातेन भदन्त ! जीवः भंते ! सुख की स्पृहा का निवारण करने से जीव जणयइ? किं जनयति? क्या प्राप्त करता है? सुहसाएणं अणुस्सुयत्तं जणयइ। सुखशातेन अनुत्सुकत्वं सुख की स्पृहा का निवारण करने से वह अणुस्सुयाए णं जीवे अणुकंपए जनयति। अनुत्सुको जीवोऽनु- विषयों के प्रति अनुत्सुक-भाव को प्राप्त करता है। अणुब्भडे विगयसोगे चरित्त- कम्पको ऽनुद्भटो विगतशोक- विषयों के प्रति अनुत्सुक जीव अनुकम्पा करने मोहणिज्जं कम्मं खवेइ।। श्चरित्रमोहनीयं कर्म क्षपयति।। वाला, प्रशांत और शोक-मुक्त होकर चरित्र को विकृत करने वाले मोह-कर्म का क्षय करता है।" ३१. अप्पडिबद्धयाए णं भंते! जीवे अप्रतिबद्धतया भदन्त ! भंते ! अप्रतिवद्धता (मन की अनासक्ति) से जीव किं जणयइ? जीवः किं जनयति? क्या प्राप्त करता है? अप्पडिबद्धयाए णं निस्संगत्तं अप्रतिबद्धतया निस्सगचं अप्रतिबद्धता से वह असंग हो जाता हैजणयइ। निस्संगत्तेणं जीवे एगे जनयति। निस्सङ्गत्वेन जीवः वाह्य संसर्गों से मुक्त हो जाता है। असंगता से जीव एगग्गचित्ते दिया य राओ य एक: एकाग्रचित्तो दिवा च रात्रौ अकेला (राग-द्वेष रहित), एकाग्रचित्त वाला, दिन असज्जमाणे अपडिबन्दे यावि चाऽसजन्नतिकद्रश्चापि विहरति।। और रात बाह्य-संसगों को छोडता हआ प्रतिबन्ध विहरइ।। रहित होकर विहार करता है। ३२.विवित्तसयणासणयाए णं भंते ! विविक्तशयनासनेन भदन्त ! भंते ! विविक्त-शयनासन के सेवन से जीव क्या जीवे किं जणयइ? जीवः किं जनयति? प्राप्त करता है? विवित्तसयणासणयाए णं विविक्तशयनासनेन चरित्र- विविक्त-शयनासन के सेवन से वह चारित्र चरित्तगत्तिं जणयइ। चरित्तगत्ते गप्ति जनयति चरित्रगुप्तश्च जीवः की रक्षा को प्राप्त होता है। चारित्र की सुरक्षा करने य णं जीवे विवित्ताहारे विविक्ताहारः दृढचरित्रः एकांतरतः वाला जीव पीप्टिक आहार का वर्जन करने वाला,५२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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