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________________ उत्तरायणाणि दढचरित्ते एगंतरए मोक्खभावपडिवन्ने अविहकम्मठि निज्जरेइ || ३३. विणियट्टणयाए णं भंते जीवे किं जणयइ ? विणियगुणयाए णं पावकम्माण अकरणयाए अब्भुट्ठेइ, पुव्वबद्धाण य निज्जरणयाए तं नियत्तेइ, तओ पच्छा चाउरंतं संसारकंतारं वीड्यइ ।। २४. संभोगपच्चक्खाणं भंते जीवे किं जणयइ ? संभोगपच्चक्खाणेणं आलंबणाई खवेइ । निरालंबणस्स य आययट्ठियाजोगा भवंति । सएणं लाभेणं संतुस्सह, परलाभ नो आसाएइ नो तक्केइ नो पीहेड़ नो पत्वे नो अभिलसह परलाभ अणासायमाणे अतक्के माणे अपीहेमाणे अपत्येमाणे अणभिलसमाणे दुच्चं सुहसेज्जं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ।। ३५. उवहिपच्यक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? उवहिपच्चक्खाणेणं अपलिमंथ जणयइ । निरुवहिए णं जीवे निक्कंखे उवहिमंतरेण य न संकिलिक्सड ।। ३६. आहारपच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? आहारपच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदइ । जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदित्ता जीवे आहारमंतरेण न संकिलिस्सइ ।। Jain Education International ४७८ मोक्षभावप्रतिपन्नः अष्टविध कर्मग्रन्थि निर्जरयति ।। विनिवर्तनेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? विनिवर्तनेन पापकर्मणां अकरणेन अभ्युत्तिष्ट, पूर्ववखाना च निर्जरणेन तत् निवर्तयति, ततः पश्चात् चतुरन्तं संसारकांतारं व्यतिव्रजति ।। संभोजप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? संभोजप्रत्याख्यानेन आलंबनानि क्षपयति । निरालम्बनस्य च आयतार्थिकायोगाः भवन्ति । स्वकेन लाभेन सन्तुष्यति । परलाभं नो आस्वादयति, नो तर्कयति, नो स्पृहयति, नो प्रार्थयति, मो अभिलषति। परलाभमनास्वादयन् अतर्कयन, अस्पृहयन्, अप्रार्थयन्, अनभिलयन्, द्वितीया सुखशय्यामुपसम्पद्य विहरति ।। उपधिप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? उपधिप्रत्याख्यानेन अपरिमन्थं जनयति । निरुपधिको जीवो निष्काङ्क्षः उपधिमन्तरेण च न संक्लिश्यति ।। आहारप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? आहारप्रत्याख्यानेन जीविताशंसाप्रयोगं व्युच्छिनत्ति । जीविताशंसाप्रयोगं व्यवच्छिद्य जीवः आहारमन्तरेण न संक्लिश्यति ।। अध्ययन २६ : सूत्र ३३-३६ ४३ दृढ़ चारित्र वाला, एकांत में रत, अन्तःकरण से मोक्ष - साधना में लगा हुआ आठ प्रकार के कर्मों की गांठ को तोड़ देता है । भंते! विनिवर्तना (इन्द्रिय और मन को विषयों से दूर रखने) से जीव क्या प्राप्त करता है ? विनिवर्तना से वह नए सिरे से पाप कर्मों को नहीं करने के लिए तत्पर रहता है और पूर्व बद्ध कर्म की निर्जरा के द्वारा उसका निवर्तन कर देता है। इस प्रकार वह पाप कर्म का विनाश कर देता है। उसके पश्चात् चार गति रूप चार अन्तों वाली संसार अटवी को पार कर जाता है।* भंते ! सम्भोज-प्रत्याख्यान (मंडली - भोजन) का त्याग करने वाला जीव क्या प्राप्त करता है ? सम्भोज-प्रत्याख्यान से वह परावलम्बन को छोड़ता है। उस परावलम्बन को छोड़ने वाले मुनि के सारे प्रयत्न मोक्ष की सिद्धि के लिए६ होते हैं। वह भिक्षा में स्वयं को जो कुछ मिलता है उसी में संतुष्ट हो जाता है। दूसरे मुनियों को मिली हुई भिक्षा में आस्वाद नहीं लेता, उसकी ताक नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता। दूसरे को मिली हुई भिक्षा में आस्वाद न लेता हुआ, उसकी ताक न रखता हुआ, स्पृहा न करता हुआ, प्रार्थना न करता हुआ और अभिलाषा न करता हुआ वह दूसरी सुख शय्या को प्राप्त कर विहार करता है। भंते! उपाधि (वस्त्र आदि उपकरणों) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? उपधि के प्रत्याख्यान से ४७ वह स्वाध्याय - ध्यान में होने वाले क्षति से बच जाता है । उपधि रहित मुनि अभिलाषा से मुक्त होकर उपधि के अभाव में मानसिक संक्लेश को प्राप्त नहीं होता । भंते! आहार प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? आहार- प्रत्याख्यान से वह जीवित रहने की अभिलाषा के प्रयोग का विच्छेद कर देता है। जीवित रहने की अभिलाषा का विच्छेद कर देने वाला व्यक्ति आहार के बिना ( तपस्या आदि में) संक्लेश को प्राप्त नहीं होता। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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