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________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ३७. कसायपच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? कसायपच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ । वीयरागभावपडिवन्ने वि य णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ।। ३८. जोगपच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? जोगपच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ । अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न श ब निज्जरेइ ॥ ३६. सरीरपच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सरीरपव्यवखाणेणं सिखाइसयगुणतणं निव्वत्तेह। सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ ।। ४०. सहायपच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सहायपच्चक्खाणेणं एगीभावं जणयइ एनी भावभूए विय णं जीवे एगग्गं भावेमाणे अप्पसद्दे अप्पझंझे अप्पकलहे अप्पकसाए अप्पतुमतुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिए यावि भवइ ।। ४१. भत्तपच्चक्खाणेण भंते! जीवे किं जणयइ ? भत्तपञ्चक्खाणेण अनेगाई भवसयाई निरुभइ ।। ४२. सब्भावपच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सदभावपच्चक्खाणेणं अनियि जणयइ । अनियट्टिपडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ तं जहा देवणिज्जं Jain Education International ४७९ कषायप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? कपायप्रत्याख्यानेन वीतरागभावं जनयति वीतरागभावप्रतिपन्नोपि च जीवः समसुखदुःखो भवति ।। योगप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? योगप्रत्याख्यानेन अयोगत्वं जनयति । अयोगी जीवो नवं कर्म नयनाति पूर्वयन्द्ध निरवति।। शरीरप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? शरीरप्रत्याख्यानेन सिद्धातिशयगुणत्वं निर्वर्तयति । सिद्धातिशयगुणसम्पन्नश्च जीवो लोकाग्रमु पगतः परमसुखी भवति ।। सन्याख्यानेन एकीभावं जनयति । एकीभावभूतोप च जीवः एकाग्र्यं भावयन् अल्पशब्दः अल्पझञ्झः अल्पकलह: अल्पकपायः अल्प-त्वत्वः संयमबहुलः संवरबहुलः, समाहितश्चापि भवति ।। भक्तप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? भक्तप्रत्याख्यानेन अनेकानि भवशतानि निरुणद्धि ।। सद्भावाचाख्यानेन सदन्त ! जीवः किं जनयति ? अध्ययन २६ : सूत्र ३७-४२ भंते! कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? कषाय- प्रत्याख्यान से वह वीतराग भाव को प्राप्त करता है। वीतराग-भाव को प्राप्त हुआ जीव सुख-दुःख में सम हो जाता है। सद्भावप्रत्याख्यानेन अनिवृत्तिं जनयति । अनिवृत्तिप्रतिपन्नश्चानगारः चतुरः केवलिकर्माशानू क्षपयति, तद् यथा-वेदनीयं. सहाय प्रत्याख्यानेन भदन्त ! भंते! सहाय प्रत्याख्यान (दूसरों का सहयोग न लेने) जीवः किं जनयति ? से जीव क्या प्राप्त करता है ? भंते! योग (शरीर, वचन और मन की प्रवृत्ति) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? योग- प्रत्याख्यान से वह अयोगत्व (सर्वथा अप्रकम्प भाव ) को प्राप्त होता है। अयोगी जीव नये कर्मों का अर्जन नहीं करता और पूर्वार्जित कर्मों को क्षीण कर देता है। भंते! शरीर के प्रत्याख्यान ( देह मुक्ति) से जीव क्या प्राप्त करता है ? शरीर के प्रत्याख्यान से वह मुक्त आत्माओं के अतिशय गुणों को प्राप्त करता है। मुक्त आत्माओं के अतिशय गुणों को प्राप्त करने वाला जीव लोक के शिखर में पहुंचकर परम सुखी हो जाता है। सहाय प्रत्याख्यान से" वह अकेलेपन को प्राप्त होता है। अकेलेपन को प्राप्त हुआ जीव एकत्व के आलंबन का अभ्यास करता हुआ कोलाहल पूर्ण शब्दों से मुक्त, वाचिक कलह से मुक्त, झगड़े से मुक्त, कषाय से मुक्त, तू-तू से मुक्त, संयम-बहुल, संवर- बहुल और समाधिस्थ हो जाता है। भंते! भक्त-प्रत्याख्यान ( अनशन) से जीव क्या प्राप्त करता है ? भक्त - प्रत्याख्यान से वह अनेक सैकड़ों जन्म-मरणों का निरोध करता है 1 भंते! सद्भाव-प्रत्याख्यान (पूर्ण संवर रूप शैलेशी) से जीव क्या प्राप्त करता है ? सद्भाव-प्रत्याख्यान से वह अनिवृत्तिशुक्लध्यान को प्राप्त करता है। अनिवृत्ति को प्राप्त हुआ अनगार केवलि -सत्क (केवली के विद्यमान) चार कमों, जैसे- वेदनीय, आयुपू, नाम और गोत्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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