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सभिक्षुक
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अध्ययन १५ :श्लोक ८-१५ टि० १७-२४
नामक एक दोष है, इसलिए कहा है विद्याओं के द्वारा जो जीवन गण--भगवान् महावीर के काल में अनेक शक्तिशाली नहीं चलाता, वह भिक्षु है।
गणतंत्र थे। वज्जी-गणतंत्र में नौ लिच्छवि और नी मल्लकी१७. मंत्र (मंतं)
ये काशी-कोशल के १८ गणराज्य सम्मिलित थे। शान्त्याचार्य ने जो देवाधिष्ठित होता है, जिसके आदि में 'ओं और अन्त मल्ल शब्द के द्वारा इसी गणराज्य की ओर संकेत किया है। में 'स्वाहा' होता है, जो 'ही' आदि वर्ण-विन्यासात्मक होता है, उग्ग--आरक्षक। उसे 'मंत्र' कहा जाता है।'
मोइय—भोगिक का अर्थ 'सामन्त' है। शान्त्याचार्य ने १८. घूमपान की नली (घूमणेत्त)
इसका अर्थ 'राजमान्य प्रधानपुरुष' किया है। नेमिचन्द्र के चूर्णिकार ने धूमनेत्र को संयुक्त माना है।
अनुसार इसका अर्थ है-विशिष्ट वेशभूषा का भोग करने वाले टीकाकारों ने दोनों शब्दों को अलग-अलग मान कर अर्थ अमात्य आदि।" किया है। उनके अनुसार 'धूम' का अर्थ है—मनःशिलादि धूप २१. कांजी का पानी (सोवीर) से शरीर को धूपित करना और 'नेत्त' का अर्थ है-नेत्र-संस्कारक इसका अर्थ है---कांजी। गुजरात में चावल के मांड को अंजन आदि से नेत्र आंजना। परन्तु यह अर्थ संगत नहीं कांजी और तमिल भाषा में उसे गंजी कहते हैं। लगता। यहां मूल शब्द है 'धूमणेत्त' । इसका अर्थ है-धूएं की नली से धुंआ लेना। विस्तार के लिए देखें- दसवेआलियं, ३ २२. अति भयंकर (भयभेरवा) के 'धूवणेत्ति' का टिप्पण।
चूर्णिकार ने इसका अर्थ-निरन्तर उत्रास पैदा करने १९. स्नान (सिणाण)
वाला किया है और शान्त्याचार्य ने 'अत्यन्त भय उत्पन्न करने - इसका अर्थ-पुत्र-प्राप्ति के लिए मंत्र-औषधि आदि से वाला' किया है। संस्कारित जल से स्नान करना किया गया है।"
अध्ययन २१ (श्लोक १६) में भी 'भयभेरवा' का अर्थ २०. (खत्तियगणउग्ग...मोइय)
भीषण-भीषणतम है। दशवैकालिक की वृत्ति में हरिभद्र सूरि ने खत्तिय-शान्त्याचार्य ने क्षत्रियों को 'हैहय' आदि वंशों में इसका यही अर्थ किया है। उत्पन्न माना है। पुराणों के अनुसार हैहय 'ऐलवंश' या मज्झिम-निकाय में एक 'भय-भैरव' नाम का सुत्तन्त 'चन्द्रवंश' की एक शाखा है। भगवान ऋषभ ने मनुष्यों के चार है।" जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की वृत्ति में आकस्मिक भय को 'भय' और वर्ग स्थापित किए थे
सिंह आदि से उत्पन्न होने वाले भय को 'भैरव' कहा है।" १. उग्र---आरक्षक।
२३. ऊंचे स्वर में (उराला) २. भोग-गुरुस्थानीय।
यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है—सुन्दर, प्रधान, ३. राजन्य-समवयस्क या मित्रस्थानीय।
भयंकर, विशाल आदि। चूर्णि और वृत्ति में इसका अर्थ४. क्षत्रिय-शेष सारी प्रजा।
महान् (शब्द) किया है। इस व्यवस्था से लगता है कि कुछ लोगों को छोड़ कर अघि २४. जो संयमी है (खेयाणुगए) कांश क्षत्रिय ही थे। इसीलिए श्रमण-परम्परा में क्षत्रियों का चूर्णिकार ने खेद का अर्थ 'विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय महत्त्व रहा।
आदि प्रवृत्तियों में होने वाला कष्ट' किया है। १. वहवृत्ति, पत्र ४१७ : 'मन्त्रम्' Eकारादिस्वाहापर्यन्तो हींकारादिवर्ण- ११. सुखबोधा, पत्र २१७ : भोगिकाः विशिष्टनेपथ्यादिभोगवन्तो मात्यादयः । विन्यासात्मकस्तम्।
१२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२३७ : भयभैरवाः सुतरां उत्त्रासजनकाः। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३७ : वमनविरेचनधूमनेत्ररनात्रादिकान्।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१६ भयेन भैरवाः-अत्यन्तसाध्वसोत्पादका ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१७ : धूम-मनःशिलादिसम्बन्धि नेतंति
भयभैरवाः। नेत्रशब्देन नेत्रसंस्कारकमिह समीरांजनादि परिगृहाते।
१३. बृहवृत्ति, पत्र ४८६ : 'भयभैरवा' भयोत्पादकत्वेन भीषणाः । (ख) सुखवोधा, पत्र २१७।
१४. दशवैकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र २६७ : ४. वही, पत्र ४१७ : स्नानम्-अपत्यार्थ मन्त्रौषधिसंस्कृतजलाभिषेचनम्। _ 'भैरवभया' अत्यन्तरौद्रभयजनकाः।, ५. वही, पत्र ४१ : क्षत्रियाः--हैहेयाद्यन्वयजाः ।
१५. मज्झिम निकाय, ११४, पृ० १३॥ ६. (क) Ancient Indian Historical Tradition, pp. 85-87.
१६. जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, वृत्ति, पत्र १४३ : 'भयं' आकस्मिक, 'भैरव' (ख) भारतीय इतिहास की रूपरेखा, जिल्द १, पृ० १२७-१२।
सिंहादिसमुत्थम्। ७. आवश्यक नियुक्ति, १६८ : उग्गा भोगा रायण खत्तिया संग हो भवे चउहा। १७. देशीशब्दकोश।।
आरक्खगुरुवयंसा सेसा जे खत्तिया ते उ।। १८. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३७ : ओराला-महंता। ८. बृहवृत्ति, पत्र ४१८ : गणाः मल्लादिसमूहाः ।
(ख) बृहवृत्ति, पत्र ४१६ : उदाराः महान्तो। ६. वही, पत्र४१८ : उग्रा:-आरक्षकादयः ।
१६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३८ : खेदेन अनुगतो, खेदो विनयवैयावृत्त्य१०. वही, पत्र ४१८ : भोगिकाः--नृपतिमान्याः प्रधानपुरुषाः ।
स्वाध्यायादिषु।
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