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________________ आमुख इस अध्ययन में 'इच्छा' आदि का समाचरण वर्णित है इसलिए इस अध्ययन का नाम 'सामायारी' – 'सामाचारी' है । 'णाणस्स सारं आयारो'- ज्ञान का सार है आचार । आचार जीवन-मुक्ति का साधन है। जैन मनीषियों ने जिस प्रकार तत्त्वों की सूक्ष्मतम छानबीन की है उसी प्रकार आचार का सूक्ष्मतम निरूपण भी किया है। आचार दो प्रकार का होता है— व्रतात्मक- आचार और व्यवहारात्मक- आचार व्रतात्मकआचार अहिंसा है। वह शाश्वत धर्म है। व्यवहारात्मक- आचार है परस्परानुग्रह । वह अनेकविध होता है । वह अशाश्वत है। जो मुनि संघीय - जीवन यापन करते हैं उनके लिए व्यवहारात्मक- आचार भी उतना ही उपयोगी है जितना कि व्रतात्मक- आचार। जिस संघ या समूह में व्यवहारात्मक- आचार की उन्नत विधि है और उसकी सम्यक् परिपालना होती है, वह संघ दीर्घायु होता है। उसकी एकता अखण्ड होती है। जैन आचार - शास्त्र में दोनों आचारों का विशद निरूपण प्राप्त है। प्रस्तुत अध्ययन में व्यवहारात्मक- आचार के दस प्रकारों का स्फुट निदर्शन है। ये दस प्रकार सम्यक्-आचार के आधार हैं इसलिए इन्हें समाचार, सामाचार और सामाचारी कहा है। सामाचारी के दो प्रकार हैं- ओघ सामाचारी और पद- विभाग सामाचारी । प्रस्तुत अध्ययन में ओघ सामाचारी का निरूपण है 1 टीकाकार ने अध्ययन के अन्त में यह जानकारी प्रस्तुत की है। कि ओघ सामाचारी का अन्तर्भाव धर्मकथानुपयोग में होता है और पद - विभाग सामाचारी का चरणकरणानुयोग में। उत्तराध्ययन धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत है।' ओध सामाचारी के दस प्रकार हैं। (श्लो० ३, ४ ) १. आवश्यकी २. नैषेधिकी ६. इच्छाकार ७. मिच्छाकार ३. आपृच्छा ४. प्रतिपृष्ठा ५. छन्दना स्थानांग (१०।१०२ ) तथा भगवती ( २५ ।५५५) में दस सामाचारी का उल्लेख है। इनमें क्रम-भेद के अतिरिक्त एक ८. तथाकार ६. अभ्युत्थान १०. उपसंपदा । १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४७ अनन्तरोक्ता सामाचारी दशविधा ओघरूपा च पदविभागात्मिका चेह नोक्ता धर्मकथा ऽनुयोगत्वादस्य छेदसूत्रान्तर्गतत्वाच्च Jain Education International तस्या: । २. मृलाचार, गाथा १२३ : समदा समाचारों, सम्माचारी समो व आचारो। सव्वेसिं सम्माणं, समाचारो हु आचारो ।। 14 नाम-भेद भी है—'अभ्युत्थान' के बदले 'निमंत्रणा' है। नियुक्ति ( गाधा ४८२) में भी 'निमंत्रणा' ही दिया है मूलाचार (गाथा १२५) में स्थानांग में प्रतिपादित क्रम से ओघ सामाचारी का प्रतिपादन हुआ है । दिगम्बर - साहित्य में सामाचारी के स्थान पर समाचार, सामाचार शब्द का प्रयोग हुआ है और इसके चार अर्थ किए हैं १. समता का आचार । २. सम्यग् आचार । ३. सम ( तुल्य) आचार । ४. समान ( परिमाण सहित) आचार । क्वचित् चक्रवाल- समाचारी का भी उल्लेख मिलता है। वर्द्धमान देशना ( पत्र १०२ ) में शिक्षा के दो प्रकार बताये हैंआसेवना शिक्षा और ग्रहण शिक्षा । आसेवना शिक्षा के अन्तर्गत दस विध चक्रवाल सामाचारी का उल्लेख हुआ है १. प्रतिलेखना २. प्रमार्जना ३. भिक्षा ४. चर्या ५. आलोचना १०. आवश्यकी । उपर्युक्त दस सामाचारियों में आवश्यकी विभाग में सारी औधिक सामाचारियों का ग्रहण हुआ है। सामाचारी का अर्थ है-मुनि का आचार-व्यवहार या इतिकर्तव्यता । इस व्यापक परिभाषा से मुनि जीवन की दिन-रात की समस्त प्रवृत्तियां 'सामाचारी' शब्द से व्यवहृत हो सकती हैं। दस विध औधिक सामाचारी के साथ-साथ प्रस्तुत अध्ययन में अन्यान्य कर्त्तव्यों का निर्देश भी हुआ है । ३. ६. भोजन ७. पात्रक धावन ८. विचारण (वहिर्भूमि- गमन ) ६. स्थण्डिल शिष्य के लिए आवश्यक है कि वह जो भी कार्य करे गुरु से आज्ञा प्राप्त कर करे। (श्लोक ८-१०) दिनचर्या की व्यवस्था के लिए दिन के चार भागों और उनमें करणीय कार्यों का उल्लेख श्लोक ११ और १२ में है। श्लोक १२ से १६ तक दैवसिक काल - ज्ञान - दिन के चार प्रहरों को जानने की विधि है। श्लोक १७ और १८ में रात्रि चर्या के चार भागों और प्रवचन सारोद्धार, गाथा ७६०, ७६१ में 'इच्छा, मिच्छा' आदि को चक्रवाल- सामाचारी के अन्तर्गत माना है और गाथा ७६८ में प्रतिलेखना, प्रमार्जना आदि को प्रकारान्तर से दस विध सामाचारी माना है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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