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________________ उत्तरज्झयणाणि ४१० अध्ययन २६ : आमुख उनमें करणीय कार्यों का उल्लेख है। श्लोक १६ और २० में अपवाद भी हैं। रात्रिक काल-ज्ञान-रात के चार प्रहरों को जानने की विधि दैनिक-कृत्यों का विस्तार से वर्णन २१वें से ३८वें श्लोक और प्रथम और चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय करने का निर्देश है। तक हुआ है और रात्रिक कृत्यों का ३६वें से ५१वें श्लोक श्लोक २१ में उपधि-प्रतिलेखना और स्वाध्याय का विधान है। तक। वें श्लोक में भी यह विषय-प्रतिपादित है। यहां थोड़े परिवर्तन यह सारा वर्णन सामाचारी के अन्तर्गत आता है। के साथ पुनरुक्त है। श्लोक २२ में पात्र-प्रतिलेखना तथा २३ सामाचारी संघीय जीवन जीने की कला है। इससे पारस्परिक में उसका क्रम है। श्लोक २४ से २८ तक वस्त्र-प्रतिलेखना की एकता की भावना पनपती है और इससे संघ दृढ़ बनता है। विधि है। श्लोक २६ और ३० में प्रतिलेखना-प्रमाद के दोष का दस-विध सामाचारी की सम्यक् परिपालना से व्यक्ति में निम्न निरूपण है। श्लोक ३१ से ३५ तक में दिन के तीसरे प्रहर के विशेष गुण उत्पन्न होते हैंकर्तव्य भिक्षाचारी, आहार तथा दूसरे गांव में भिक्षार्थ जाने १. आवश्यिकी और नैषेधिकी से निष्प्रयोजन गमनागमन आदि का विधान है। श्लोक ३६ एवं ३७ तथा ३८ के प्रथम पर नियन्त्रण रखने की आदत पनपती है। दो चरणों तक चतुर्थ प्रहर के कर्त्तव्य-वस्त्र-पात्र-प्रतिलेखन, २. मिच्छाकार से पापों के प्रति सजगता के भाव स्वाध्याय, शय्या और उच्चार-भूमि की प्रतिलेखना का विधान पनपते हैं। है। श्लोक ३८ के अन्तिम दो चरणों से ४२ के तीन चरणों ३. आपृच्छा और प्रतिपृच्छा से श्रमशील तथा दूसरों तक दैवसिक प्रतिक्रमण का विधान है। चतुर्थ चरण में रात्रिक के लिए उपयोगी बनने के भाव बनते हैं। काल-प्रतिलेखना का विधान है। श्लोक ४३वां १८वें का पुनरुक्त ४. छन्दना से अतिथि-सत्कार की प्रवृत्ति बढ़ती है। है तथा ४४वां २०वें का पुनरुक्त है। श्लोक ४५ से ५१ तक ५. इच्छाकार से दूसरों के अनुग्रह को सहर्ष स्वीकार रात्रिक प्रतिक्रमण का विधान है। ५२वें श्लोक में उपसंहार है। करने तथा अपने अनुग्रह में परिवर्तन करने की २०वें श्लोक तक एक प्रकार से ओघ समाचारी (दिन और कला आती है। परस्परानुग्रह संघीय-जीवन का रात की चर्या) का प्रतिपादन हो चुका है। श्लोक २१ से ५१ अनिवार्य तत्त्व है। परन्तु व्यक्ति जब उस अनुग्रह तक प्रतिपादित विषय का ही विस्तार से प्रतिपादन किया है। को अधिकार मान बैठता है, वहां स्थिति जटिल इसलिए यत्र क्वचित् पूनरुक्तियां भी हैं। बन जाती है। दूसरों के अनुग्रह की हार्दिक स्वीकृति __मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे में स्वयं में विनय पैदा करती है। ध्यान, तीसरे में भिक्षाचर्या और चौथे में पुनः स्वाध्याय। उपसंपदा से परस्पर-ग्रहण की अभिलाषा पनपती (श्लोक १२) मुनि रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे में अभ्युत्थान (गुरु-पूजा) से गुरुता की ओर अभिमुखता ध्यान, तीसरे में निद्रा-मोक्ष (शयन) और चौथे में पुनः स्वाध्याय। होती है। (श्लोक १८) तथाकार से आग्रह की आदत छूट जाती है, विचार यह मुनि के औत्सर्गिक कर्तव्यों का निर्देश है। इसमें कई करने के लिए प्रवृत्ति सदा उन्मुक्त रहती है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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