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________________ महानिर्ग्रन्थीय इन चारों अंगों को 'चिकित्सा' कहा गया है।' १६. पतिव्रता (अणुब्बया) जिसका व्रत आचार कुल के अनुरूप होता है वह स्त्री अनुव्रता कहलाती है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ पतिव्रता किया है अणुब्वया का वैकल्पिक अर्थ अनुवया तुल्यवयवाली हो सकता है। १७. स्नान (ण्हाणं) स्नान का सामान्य अर्थ है नहाना। यहां स्नान का अर्थ है - स्नान का साधन, सुगंधित पानी आदि। देखें- दसवे आलियं ६ ।६३ का टिप्पण । १८. (फिट्टई) अंश धातु को प्राकृत में फिट्ट आदेश होता है। इसका अर्थ है-दूर होना या नष्ट होना । * १९. दुस्सा (दुक्खमा हु) इसके संस्कृत में दो रूप हो सकते हैं दु:क्षमा खलु दुःखमाहुः । दुःक्षमा-- यह वेदना का विशेषण है इसका अर्थ हे दुस्सा दुक्खमाहु—इसको संयुक्त मानने पर अर्थ होगावेदना का अनुभव करना। यहां आहुः क्रियापद है। २०. (श्लोक ३२-३३) ३४१ पर वे इस भयंकर बीमारी से सर्वथा मुक्त हो गए। २१. स्वस्थ (कल्ले) प्रस्तुत प्रकरण श्रद्धा चिकित्सा (Faith healing) और संकल्प का स्पष्ट निदर्शन है। अनाथी मुनि आंखों की भयंकर वेदना से पीड़ित थे। सभी प्रकार की चिकित्साएं औषधोपचार करने पर भी उनका रोग उपशांत नहीं हुआ। जब सारे उपचार और सारे चिकित्सक उनके लिए अकिञ्चित्कर हो गए तब उन्होंने अपने लिए एक चिकित्सा की । वह उनके लिए अचूक सिद्ध हुई। वह थी श्रद्धा चिकित्सा । श्रद्धा, आत्म-विश्वास और दृढ़ संकल्प के द्वारा वे रोग मुक्त हो गये। मन ही मन अनाथी मुनि ने एक संकल्प लिया — यदि मैं इस विपुल वेदना से मुक्त हो जाऊं तो मैं अनगार वृत्ति को स्वीकार कर लूंगा। इस संकल्प के साथ वे कायोत्सर्ग की मुद्रा में सो गये। भावना का अतिरेक श्रद्धा, आस्था और आत्मविश्वास में परिणत हो गया। उस आस्था ने ही संकल्प को अध्यवसाय, सूक्ष्मतम शरीर तक पहुंचा दिया। ज्यों-ज्यों रात बीती उनका संकल्प फलवान् बनता गया। अब संकल्प संकल्प न रहकर साध्य बन गया । सूर्योदय होने १. ठाणं, ४५१६ चउव्विहा तिगिच्छा पन्नत्ता, तं जहा - विज्जो ओसधाई आउरे परिचारते । २. बृहद्वृत्ति पत्र ४७६ : 'अणुव्ययत्ति' अन्विति-कुलानुरूपं व्रतं -- आचारोऽस्या अनुव्रता पतिव्रतेति यावत्, वयो ऽनुरूपा वा । ३. वही, पत्र ४७६ : स्नात्यनेनेति स्नानं गन्धोदकादि । ४. तुलसीमंजरी, सूत्र ८१२ भ्रंशे फिड फिट्ट फुड-फुट्ट चुक्क भुल्लाः । ५. भावप्रकाशनिघण्टु, वटादिवर्ग, श्लोक ५४-५८ । Jain Education International अध्ययन २० : श्लोक २८-४० टि० १६-२५ यहां कल्ले शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं—नीरोग और आने वाला दिन । प्रस्तुत सन्दर्भ में इसका अर्थ स्वस्थ किया गया है । २२. कूटशाल्मली (कूडसामली) ये वृक्ष विशाल होते हैं और इनकी डालियों पर छोटे-छोटे नुकीले कांटे होते हैं। फलों में से सफेद रूई निकलती है । हिन्दी में इनका नाम सेमल या सेमर है । भावप्रकाशनिघण्टु में कूटशाल्मली और शाल्मली — इन दोनों का पृथक् उल्लेख मिलता है। इन दोनों वृक्षों में समानताएं अधिक हैं, भेद कम है। २३. (श्लोक ३८) डॉ० हरमन जेकोबी ने ३८ से ५३ तक की गाथाओं को प्रक्षिप्त माना है। उन्होंने इसके दो कारण बताए हैं १. इन गाथाओं का प्रतिपाद्य विषय संदर्भ के साथ मेल नहीं खाता। २. एक से सेंतीस गाथाओं का छन्द एक प्रकार का है और ३८ से ५३ तक की गाथाओं का छन्द भिन्न प्रकार का है। डॉक्टर हरमन जेकोबी का यह अनुमान उचित लगता है। अनाथता की चर्चा नौवें श्लोक से शुरू होती है और वह ३७वें श्लोक में संपन्न हो जाती है। उसके पश्चात् 'तुट्टो य सेणियो राया' इस ५४वें श्लोक में सम्राट् श्रेणिक मुनि के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता है। इस प्रकार यह कथावस्तु सहज प्रासंगिक बन जाती है। २४. सावधानी ( आउत्तया) युक्त शब्द के अनेक अर्थ होते हैं—संबद्ध, उद्युक्त, सहित, समन्वित और समाहित।" गीता के शांकरभाष्य में इसका अर्थ समाहित किया है।" उत्तराध्ययन के वृत्तिकार ने इसका अर्थ अवधानताएकाग्रता किया है। आप्टे में भी यही अर्थ प्राप्त है। २५. वीर पुरुष चले हैं (वीरजायं) यह शब्द मार्ग का विशेषण है। इसके दो अर्थ किये जा सकते हैं - वह मार्ग जिस पर वीर पुरुष चले हैं अथवा वह ६. जैन सूत्राज, उत्तराध्ययन, पार्ट २, पृ० १०४ : The verses 34-53 are apparently a later addition because (1) The subject treated in them is not connected with that of the fore going part, and (2) They are composed in a different metre. दसवेआलियं, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ११८ | गीता, ६ ८ शांकरभाष्य, पृ० १७७ युक्त इत्युच्यते योगी-युक्तः समाहितः । ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४७८ : आयुक्तता - दत्तावधानता । (ख) आप्टे To fix or direct (The mind) Towards. ७. ८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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