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________________ उत्तरज्झयणाणि १५६ अध्ययन ८:श्लोक १६-१६ टि०२८-३४ सम्यक् चारित्रात्मक जिन-धर्म की प्राप्ति।' अन्न भणति पुरतो, अन्नं पासेण बज्जमाणीओ। स्थानांग में इसके तीन प्रकार बतलाए गए हैं--ज्ञानबोधि, अन्नं च तासि हियए, नजं खमं तं करेंति महिलाओ। दर्शनबोधि और चारित्रबोधि। (उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १७६) २८. दुष्पूर है यह आत्मा (दुप्पूरए इमे आया) 'अन्यस्यांके ललति विशदं चान्यमालिंग्य शेते, एक भिखारी भिक्षा मांगने निकला। वह घर-घर जाकर अन्यं वाचा चपयति हसत्यन्यमन्यं च रौति। कहता, मेरा पात्र मोहरों से भर दो। किसी भी व्यक्ति में यह अन्यं वेष्टि स्पशति कशति प्रोणुते वान्यमिष्ट, सामर्थ्य नहीं था कि वह उस पात्र को मोहरों से भर दे। यह बात नार्यो नृत्यत्तडित इव धिक् चञ्चलाश्चालिकाश्च।।' राजा तक पहुंची। राजा ने उसे दरबार में बुलाकर कहा-मैं (बृहद्वृत्ति, पत्र २६७) भरता हूं तेरे पात्र को मोहरों से। राजा ने खजानची को आदेश हृद्यन्यद् वाक्यन्यत् कार्येप्यन्यत् पुरोऽथ पृष्ठेऽन्यत्। दिया। खजानची भिखारी के पात्र में मोहरें डालने लगा, पर यह क्या? वह पात्र भर ही नहीं रहा था। राजा को आश्चर्य हुआ। अन्यत् तव मम चान्यत्, स्त्रीणां सर्व किमप्यन्यत् ।। उसने भिखारी को पूछा। भिखारी बोला-महाराज ! यह सामान्य (सुखबोधा पत्र १३२) पात्र नहीं है। यह मनुष्य की खोपड़ी है। यह कभी नहीं भरती। ३२. राक्षसी की भांति भयावह स्त्रियों में (रक्खसीसु) यह दुष्पूरक है। यहां स्त्री को राक्षसी कहा है। जिस प्रकार राक्षसी समस्त २९. (श्लोक १७) रक्त को पी जाती है और जीवन हर लेती है, वैसे ही स्त्रियां प्रस्तुत श्लोक में 'लाभ से लोभ बढ़ता है' के प्रसंग में भी मनुष्य के ज्ञान आदि गुणों तथा जीवन और धन का सर्वनाश कपिल की कथा की ओर संकेत है। पूरे कथानक के लिए देखें कर देती हैं। राक्षसी शब्द लाक्षणिक है, अभिधा वाचक नहीं है। इसी अध्ययन का आमुख पृ० १६७, १६८। यह कामासक्ति या वासना का सूचक है। पुरुष के लिए स्त्री वृत्तिकार ने प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'मास' (सं० माषः) वासना के उद्दीपन का निमित्त बनती है, इस दृष्टि से उसे शब्द का मान दिया है। उस समय ढाई रत्ती का एक माषा राक्षसी कहा है। स्त्री के लिए पुरुष वासना के उद्दीपन का होता था। आज छह या आठ रत्ती का एक माषा माना जाता निमित्त बनता है, इस दृष्टि से उसे राक्षस कहा जा सकता है। इसी तथ्य को पुष्ट करने वाला श्लोक है३०. ग्रन्थि (गंड) दर्शनात् हरते चित्तं, स्पर्शनात् हरते बलम्। यहां गंड का अर्थ-ग्रन्थि (गांठ) या फोड़ा हो सकता है। मैथुनात् हरते वित्तं, नारी प्रत्यक्षराक्षसी।। स्तन मांस की ग्रंथि' या फोड़े के समान होते हैं, इसलिए उन्हें ३३. दास की भांति नचाती हैं (खेल्लति जहा व दासेहि) गंड कहा गया है। कामवासना के वशवर्ती व्यक्तियों को स्त्रियां दास की भांति ३१. अनेक चित्तवाली (अणेगचित्तास) आज्ञापित करती हैं। वे कहती हैं आओ, जाओ, बैठो, यह आचारांग का एक सूक्त है-अणेगचित्ते खलु अयं पूरिसे- मत करो, वह मत करो आदि-आदि। इस प्रकार वे उनको पुरुष अनेक चित्तवाला होता है। प्रस्तुत श्लोक में स्त्री के लिए नचाती हैं। 'अणेगचित्ता' का प्रयोग हुआ है। सूत्रकृतांग (श्रुतस्कंध १ अध्ययन ४) में इसका विशद चूर्णिकार और वृत्तिकार ने स्त्री की अनेकचित्तता के विषय वर्णन मिलता है। में कुछ श्लोक प्रस्तुत किए हैं ३४. अति मनोज्ञ (पेसलं) कुर्वन्ति तावत् प्रथमं प्रियाणी, यावन्न जानन्ति नरं प्रसक्तम्। चूर्णिकार ने 'प्रियं करोतीति पेशलः'-ऐसी व्युत्पत्ति कर ज्ञात्वा च तन्मन्मथपाशबद्ध, यस्तामिषं मीनमिवोदरंति। इसका अर्थ प्रिय करने वाला किया है। अथवा वृत्तिकार ने इहलोक और परलोक के लिए हितकारी होने १. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : 'बोधिः' प्रेत्य जिनधर्माविाप्तिः। २. ठाणं, ३१७६। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २६७ : द्वाभ्यां--द्विसंख्याभ्यां माषाभ्यां पशूचरत्ति कामानाभ्याम्। ४. वैराग्य शतक, श्लोक २१: स्तनी मांस-ग्रन्थी कनककलशावित्युपमित्ती। ५. बृहवृत्ति, पत्र २६७ : गण्डं-गडु चोपचितपिशितपिण्डरूपतया ___गलत्पूतिरुधिरार्द्रतासम्भवाच्च तदुपमत्वाद् गण्डे कुचायुक्ती। ६. वही, पत्र २६७ : राक्षस्व इव राक्षस्यः-स्त्रियः तासु, यथा ही राक्षस्यो रक्तसर्वस्वमपकर्षन्ति जीवितं च प्राणीनामपहरन्ति एवमेता अपि, तच्चतो ही ज्ञानादीन्येव जीवितं च अर्थश्च (सर्वस्वं) तानी च ताभिरपहीयन्त एव, तथा च हारिल:“वातोद्भूतो दहति हुतभुग्देहमेकं नराणां, मत्तो नागः कुपितभुजगश्चैकदेहं तथैव। ज्ञानं शीलं विनयविभवौदार्यविज्ञानदेहान्। सर्वानर्थान् दहति वनिताऽऽमुष्मिकानैहिकांश्च।" ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७७। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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