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कापिलीय
अंगविज्जं अंगवि शरीर के अवयवों के स्फुरण से शुभाशुभ बताने वाले शास्त्र को 'अंग विद्या' कहा जाता है।" चूर्णिकार ने अंग-विद्या का अर्थ 'आरोग्य-शास्त्र' किया है । किन्तु प्रकरण की दृष्टि से अंग-विचार अधिक संगत लगता है । '
शान्त्याचार्य ने 'अंगविज्जा' के तीन अर्थ किए हैं-स्फुरण से शुभ-अशुभ बताने
शरीर के अवयवों के
इन्द्रियों के विषयों के आसेवन को भोग कहते हैं । भोग काम का उत्तरवर्ती है। पहले कामना होती है, फिर भोग होता है । आगमों में रूप और शब्द को काम तथा स्पर्श, रस और गंध को भोग कहा है।
चूर्णि में रस का अर्थ है – तिक्त, मधुर आदि रस और वृत्ति में उसके दो अर्थ प्राप्त हैं” – अत्यन्त आसक्ति अथवा श्रृंगार आदि रस ।
२२. अनियंत्रित रखकर (अणियमेत्ता)
वृत्तिकार का कथन है कि रस भोग के अन्तर्गत आते हैं, चूर्णिकार ने इसका अर्थ मन और इन्द्रियों का अनियमन परन्तु अतिगृद्धि को निदर्शित करने के लिए उनका पृथक् ग्रहण किया है। * किया है।"
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अध्ययन ८ : श्लोक १४-१५ टि०२२-२७
२४. काम, भोग और रसों में आसक्त (कामभोगरसगिद्धा) विषयासक्त मनुष्यों द्वारा काम्य इष्ट शब्द, रूप, गंध, रस तथा स्पर्श को काम कहते हैं। इसके दो प्रकार हैं—द्रव्यकाम और भावकाम। भावकाम के दो प्रकार हैं-इच्छाकाम और मदनकाम। अभिलाषारूप काम को इच्छाकाम और वेदोपयोग काम को मदनकाम कहते हैं। "
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वाला शास्त्र ।
प्रणव, मायाबीज आदि वर्ण विन्यास युक्त विद्या । अंग अर्थात् अंगविद्या में वर्णित भौम, अन्तरिक्ष आदि, उनके शुभ-अशुभ को बताने वाली विद्या, विद्यानुप्रवाद में प्रसिद्ध विद्याएं, जैसे—हलि ! हलि ! मातङ्गिनी स्वाहा ।
'जीवियं अणियमेत्ता' का 'जीविकां अनियम्य' भी हो सकता है। इसका अर्थ होगा- जीविका का अनियमन कर । २३. समाधियोग से ( समाहिजो एहिं )
समाधि का अर्थ है-एकाग्रता । उससे आत्मा के साथ सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है, इसलिए वह योग है। दशवैकालिक आगम में समाधि के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं१. विनय समाधि, २ श्रुत समाधि ३ तपः समाधि और ४. आचार समाधि ।
वृत्ति में समाधियोग के दो अर्थ प्राप्त हैं
१. समाधि का अर्थ है-चित्त-स्वास्थ्य और योग का अर्थ है---मन, वचन और काया की शुभ प्रवृत्ति । २. समाधि का अर्थ है शुभ चित्त की एकाग्रता और योग का अर्थ है-प्रत्युप्रेक्षण आदि प्रवृत्तियां।
१. बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : अंगविद्यां च शिरःप्रभृत्यंगस्फुरणतः शुभाशुभसूचिकाम् । २. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १७५: अंगविद्या नाम आरोग्यशास्त्रम् । ३. बृहद्वृत्ति पत्र २६५ : अंगविद्यां च शिरःप्रभृत्यंगस्फुरणतः शुभाशुभसूचिकां 'सिरफुरणे किर रज्ज' इर्त्यादिकां विद्यां प्रणवमायाबीजादिवर्णविन्यासात्मिका वा यद् वा अंगानि अंगविद्याव्यावर्णितानि भीमन्तरीक्षादीनि विद्या 'हलि ! हलि मातंगिनी स्वाहा' इत्यादयो विद्यानुवादप्रसिद्धाः, ततश्च अंगानि च विद्याश्चांगविद्याः, प्राग्वद् वचनव्यत्ययः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७७ : न नियमित्ता अनियमित्ता, इंदियनियमेणं, नो-इंदियनियमेणं ।
५. दसवेआलियं, ६।४।३।
६. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : समाधियोगेहिं - समाधिः - चित्तस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगाः - शुभमनोवाक्कायव्यापाराः समाधियोगाः । यद् वा समाधिश्चशुभचित्तैकाग्रता योगाश्च - पृथगेव प्रत्युपेक्षणादयो व्यापाराः समाधियोगाः । ७. विशेष विवरण के लिए देखें-दसवे आलियं, २19 का काम शब्द पर टिप्पण ।
८. विशेष विवरण के लिए देखें दसवे आलियं, २।३ का भोग शब्द
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देखें- ५१५ का टिप्पण
२५. असुरकाय में (आसुरे काए)
चूर्ण में इसके दो अर्थ किए गए हैं-असुर देवों के निकाय में अथवा रोह तिर्यक योनि में" बृहद्वृत्ति में केवल पहला ही अर्थ है ।३
२६. बहुत (बहु)
चूर्णि और वृत्ति में इसे संसार का विशेषण माना है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ चौरासी लाख भेद वाला संसार किया है । वृत्तिकार ने इस अर्थ को वैकल्पिक मानकर मुख्य अर्थ विपुल या विस्तीर्ण किया है। हमने इसे क्रिया - विशेषण माना है।
२७. बोधि (बोही)
बोधि का अर्थ है-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और
पर टिप्पण ।
६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५ रसास्तिक्तादयः । १०. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ रसः अत्यन्तासक्तिरूपः.. शृङ्गारादयो वा ।
११. वही, पत्र २६६ : भोगान्तर्गतत्वेऽपि चैषां (रसानां) पृथगुपादानमतिगृद्धिविषयताख्यापनार्थम् ।
१२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५, १७६ : असुराणामयं आसुरः, ते हि
(बहिचा) रियसमणा असत्यभावणाभाविया असुरेसु वा उववज्र्ज्जति, अथवा असुरसदृशो भावः आसुरः, क्रूर इत्यर्थः, 'उववज्जति आसुरे काए' त्ति रौद्रेषु तिर्यग्योनिकेषु उववज्जति ।
१३. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ 'आसुरे' असुरसम्बंधि-निकाये, असुरनिकाये इत्यर्थः ।
१४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७६: बहुति चउरासीतियोनिलक्षभेदः । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : बहुशब्दस्य 'बहुप्टपे घृतं श्रेयः' इत्यादिषु विपुलवाचिनो ऽपि दर्शनाद् बहुविपुलं विस्तीर्णमिति यावत्, बहुप्रकारं या चतुरशीति योनिलक्षतया ।
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यद् वा रसाः पृथगेव
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