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________________ उत्तरज्झयणाणि १५४ अध्ययन ८:श्लोक १३ टि० २१ अधिक उपयुक्त लगता है। इन्द्रियों का यमन अथवा संयम करने यह बहुत रूखा होता है, इसलिये इसे प्रान्त-भोजन कहा है। के लिए प्रान्त भोजन का सेवन उपयुक्त है। जीवन-यापन के देखें-दसवेआलियं, ५११६८ का टिप्पण। लिए इस भोजन की उपयुक्तता नहीं है। २१. (श्लोक १३) कुम्मासं-शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ इस श्लोक में कहा गया है कि जो मुनि लक्षण-विद्या, 'राजमाष'-बड़े उड़द किया है।' मोनियर मोनियरविलियम्स ने स्वप्न-विद्या और अंग-विद्या का प्रयोग करते हैं, वे सही अर्थ इसका अर्थ 'तरल और खट्टा पेय-भोजन, जो फलों के रस से में मुनि नहीं हैं। अथवा उबले हुए चावलों से बनाया जाता है' किया है। नेमिचन्द्र ने इन तीनों के विषय में प्राचीन श्लोक और अभिधानप्पदीपिका में कुल्माष व्यंजन को 'सूप' कहा है। प्राकृत गाथाएं उद्धृत की हैं। उन्होंने लक्षणशास्त्र से सम्बद्ध विशुद्धिमार्ग में इसी अर्थ को मान्य कर 'कुल्माष' का अर्थ 'दाल' अठारह श्लोक, स्वप्नशास्त्र की तेरह गाथाएं और अंगविद्या से किया है।' संबद्ध सात गाथाएं दी हैं। उनकी तुलना डॉ० जे० व्ही० ___ सिंहलसन्नय (व्याख्या) में 'कुल्माष' शब्द का अर्थ- जेडोलियम द्वारा सम्पादित जगदेव की स्वप्न-चिंतामणि से की जा 'कोमु' अर्थात् पिट्ठा लिखा गया है। 'कुल्माष' के अनेक अर्थ सकती है। जार्ल सरपेन्टियर ने इसकी विस्तृत जानकारी प्रस्तुत हैं—कुलथी (उड़द की जाति का एक मोटा अन्न), मूंग आदि की है। शान्त्याचार्य ने इसका विस्तृत वर्णन नहीं किया है, द्विदल, कांजी। उस समय ओदन, कुल्माष, सत्तू आदि प्रचलित केवल एक-दो श्लोक उद्धृत किए हैं। थे। 'कुल्माष' दरिद्र लोगों का भोजन था। वह उड़द आदि द्विदल बौद्ध-ग्रन्थों में अंग-निमित्त, उत्पाद, स्वप्न, लक्षण आदि में थोड़ा जल, गुड़ या नमक और चिकनाई डालकर बनाया विद्याओं को 'तिर्यक्-विद्या' कहा है। इनसे आजीविका करने को जाता था। देखें-दसवेआलियं, ५।१।६८ का टिप्पण। मिथ्या-आजीविका कहा है। जो इनसे परे रहता है वही वुक्कसं-चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं–तीमन 'आजीव-परिशुद्धिशील' होता है।५ अथवा सुरा के लिए पसाए हुए आटे का शेष भाग। लक्खणं शरीर के लक्षणों, चिन्हों को देखकर शुभ-अशुभ शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ-मूंग, उड़द फल कहने वाले शास्त्र को 'लक्षण-शास्त्र' या 'सामुद्रिक-शास्त्र' आदि की कणियों से निष्पन्न अन्न अथवा जिसका रस निकाल कहते हैं। कहा भी है-'सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम्'–सभी (शुभाशुभ लिया गया हो, वैसा अन्न किया है।' फल देने के लक्षण) जीवों में विद्यमान हैं। जैसेपुलागं चूर्णिकार ने 'पुलाक' के दो अर्थ किए हैं अस्थिवर्थाः सुखं मांसे, त्वचि भोगा: स्त्रियोऽक्षिषु। १. वल्ल, चना आदि रूखे अनाज। गती यानं स्वरे चाज्ञा, सर्व सत्त्वे प्रतीष्ठितम्॥" २. जो स्वभाव से नष्ट हो गया हो (जिसका बीज भाग अर्थात् अस्थि में धन, मांस में सुख, त्वचा में भोग, आंखों नष्ट हो गया हो) वह अनाज। में स्त्रियां, गति में वाहन और स्वर में आज्ञा-इस प्रकार पुरुष शान्त्याचार्य ने असार वल्ल, चना आदि को 'पुलाक' कहा है। में सब कुछ प्रतिष्ठित है। महाभारत में भी 'पूलाक' शब्द का प्रयोग मिलता है। यह शब्द इसी आगम के १५७, २०६४५ में भी आया है। उसका अर्थ किया गया है-दाना जो भूमि के अन्दर की गर्मी सुविणं-स्वप्न शब्द यहां 'स्वप्न-शास्त्र' का वाचक है। से सूख जाता है। स्वप्न के शुभाशुभ फल की सूचना देने वाले शास्त्र को 'स्वप्न-शास्त्र' मंथु-इसका अर्थ है--बैर” का चूर्ण, सत्तू का चूर्ण।'२ कहा जाता है। १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : 'कुल्माषाः' राजमाषाः । (ख) सुखबोधा, पत्र १२६। २. A Sanskrit English Dictionary. p. 296 : Sour gruel (prepared by the spontaneous fermentation of the juice of fruits or boiled rice.) ३. अभिधानप्पदीपिका, पृ० १०४८ : सूपो (कुम्मास व्यंजने)। ४. विशुद्धिमार्ग, ११११ पृ०३०५॥ ५. विनयपिटक, 81१७६ । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५ : बुक्कसो णाम कुसणणिब्भाडणं च, अथवा सुरागलितसेसं बुक्कसो भवति। ७. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : 'बुक्कसं' मुद्गमाषादि नखिकानिष्पन्नमन्न- मतिनिपीडितरसं वा। (ख) सुखवोधा, पत्र १२६ | ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५ : पुलागं णाम निस्साए णिप्फाए चणगादि यद्वा विनष्ट स्वभावतः तत् पुलागमुद्दिश्यते। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : 'पुलाकम्' असार वल्लचनकादि। १०. महाभारत, शांतिपर्व १८१७ : ___ 'पुलाका इव धान्येषु, पुत्तिका इव पक्षिषु। तद्विधास्ते मनुष्याणां, येषां धर्मों न कारणम् ।।' ११. सुखबोधा, पत्र १२६ : 'मथु' बदरादि चूर्णम् । १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५ : मथ्यते इति मंथु सत्तचुन्नाति । १३. बृहवृत्ति, पत्र २६५ : मन्थु वा-बदरादि चूर्णम्, अतिरूक्षतया चास्य प्रान्तत्वम्। १४. दि उत्तराध्ययन सूत्र ३०६-३१२। १५. विशुद्धिमार्ग ११, पृ० ३०, ३११ १६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५ : लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं, सामुद्रवत्। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : 'लक्षणं च' शुभाशुभ सूचक पुरुषलक्षणादि, रूढितः तत्प्रतिपादक शास्त्रमणि लक्षणम्। १७. बृहवृत्ति, पत्र २६५।। १८. वही, पत्र २E५ : 'स्वप्नं चे' त्यत्रापि रूढितः स्वप्नस्य शुभाशुभफलसूचक शास्त्रमेव। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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