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________________ कापिलीय १५३ अध्ययन ८:श्लोक १०-१२ टि० १७-२० १७. दूर हो जाते हैं (निज्जाइ) १९. यात्रा (संयम-निर्वाह) के लिए भोजन की एषणा करे चूर्णि में इसका अर्थ-अधो गच्छति-नीचे जाता है किया (जायाए घासमेसेज्जा) है। वृत्ति में इसका मूल अर्थ है—निकल जाना। वृत्तिकार ने संयम-जीवन की यात्रा के लिए भोजन की गवेषणा करेपाठान्तर के रूप में देशी शब्द 'णिण्णाई' को प्रस्तुत कर उसका इस प्रसंग में शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने एक श्लोक उद्धृत अर्थ-अधो गच्छति-नीचे जाता है--किया है। किया है१८. (श्लोक १०) जह सगडक्खोवंगो कीरइ भरवहणकारणा गवरं। ___ चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'हिंकार' के विषय की तह गुणभरवहणत्यं आहारो भयारीणं। चर्चा की है-हिंकार का प्रयोग सन्निधान और कारण इन दो -जैसे गाड़ी के पहिए की धुरी को भार-बहन की दृष्टि अर्थों में होता है। कारण के अर्थ में 'हिंकार' का प्रयोग बहुवचन से चुपड़ा जाता है, वैसे ही गुणभार के वहन की दृष्टि से में ही होता है, जैसे-तेहिं कयं । सन्निधान के अर्थ में 'हिंकार' ब्रह्मचारी आहार करे, शरीर को पोषण दे। का प्रयोग एकवचन में ही होगा, जैसे--कहिं गतो आसि? कहिं प्रस्तुत श्लोक में 'जायाए घासमेसेज्जा' से एषणाशुद्धि का च ते सद्धा? और 'रसगिद्धे न सिया भिक्खाए' से परिभोगैषणाशुद्धि का इस श्लोक में प्राणातिपातविरमण का स्पष्ट निर्देश है। विवेक दिया गया है। मुनि मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी प्राणी के प्रति हिंसा का इसी आगम में छह कारणों से आहार करने और छह प्रयोग न करे, फिर चाहे स्वयं को कितनी ही ताड़ना सहन कारणों से आहार न करने का उल्लेख है।६ करनी क्यों न पडे। २०. (श्लोक १२) उज्जयिनी नगरी में एक श्रावक था। उसका पुत्र पूर्णरूपेण पंताणि चेव सेवेज्जा—इसकी व्याख्या दो प्रकार से संस्कारी था। एक बार चोरों ने उसका अपहरण कर मालव होती है-'प्रान्तानि च सेयेतेव' और 'प्रान्तानि चैव सेवेत।' प्रदेश ले गए और वहां एक सूपकार के हाथों बेच डाला। गच्छवासी मुनि के लिए यह विधि है कि वह प्रान्त-भोजन मिले सूपकार ने एक दिन उसे कहा-'बेटे! तुम जंगल में जाओ तो उसे खाए ही, किन्तु उसे फेंके नहीं। गच्छनिर्गत (जिनकल्पी) और बटेरों को मार कर लाओ। मैं भोजन के लिए उन्हें मुनि के लिए यह विधि है कि वह प्रान्त-भोजन ही करे। प्रान्त पकाऊंगा।' वह बोला--'मैं एक श्रावक का पुत्र हूं। मैंने अहिंसा का अर्थ है-नीरस-भोजन। शीतपिण्ड (ठण्डा आहार) आदि को समझा है। में ऐसा काम कभी नहीं कर सकता।' सूपकार उसके उदाहरण हैं। ने कहा-'अब तुम मेरे द्वारा खरीद लिए गए हो। मेरी आज्ञा जवणट्ठाए-शान्त्याचार्य ने 'जवण' का अर्थ-यापनका पालन करना ही होगा।' लड़के ने आज्ञा मानने से इनकार किया है। गच्छवासी की अपेक्षा से 'जवणट्ठाए' का अर्थ होगाकर दिया तब सूपकार बोला--'मेरी आज्ञा न मानने के भयंकर यदि प्रान्त-आहार से जीवन-यापन होता है तो खाए, वायु बढ़ने परिणाम भोगने होंगे। मैं तुम्हें हाथी के पैर तले कुचलवा दूंगा। से जीवन-यापन न होता हो तो न खाए। गच्छनिर्गत की अपेक्षा मैं तुम्हारे सिर पर गीला चमड़ा बांधकर मार डालूंगा।' बालक से इसका अर्थ होगा-जीवन-यापन के लिए प्रान्त-आहार ने कहा-'कुछ भी क्यों न हो, मैं प्राणवध का यह कार्य नहीं कर करे। सकता।' सूपकार ने तब उसे हाथी के पैरों तले कुचलवा कर 'जवण' का संस्कृत रूप 'यमन' होना चाहिए। प्राकृत में मार डाला। 'मकार' को 'वकार' आदेश भी होता है, जैसे-श्रमण के दो अहिंसा के क्षेत्र में सत्याग्रह की यह महत्त्वपूर्ण घटना है।' रूप बनते हैं-समणो, सवणो। प्रकरण की दृष्टि से यमन शब्द १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७३, १७४ : निज्जाइ नाम अधो गच्छति। २. बृहद्वृत्ति, पत्र २६३ : निर्याति-निर्गच्छति, पटन्ति च-णिण्णाई त्ति अत्र देशीपदत्वादधोगच्छति। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७४ : हिंकारस्य सन्निधानत्वात् कारणत्वाच्च, तत्र कारणे बहुवचन एव उपयोगो हिंकरणस्य, तथा तेहिं कयं, सन्निधाने तु एकवचन एव हिंकारोपयोगः, तं जहा--कहिं गतो आसि? कहिं च ते सद्धा? ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७४। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ | ५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २६४। (ख) सुखबोधा, पत्र १२८ । ६. उत्तराध्ययन, २६ ॥३२, ३४। ७. बृहवृत्ति, पत्र २६४, २६५ : 'प्रान्तानि' नीरसानि, अन्नपानानीति गम्यते, च शब्दादन्तानि च, एवाऽवधारणे, स च भिन्नक्रमः सेविज्जा इत्यस्यान्तरं द्रष्टव्यः, ततश्च प्रान्तान्यन्तानि च सेवेतैव न त्वसाराणीति परिष्ठापयेद्, गच्छनिर्गतापेक्षया वा प्रान्तानि चैव सवेत, तस्य तथाविधानामेव ग्रहणानुज्ञानातू, कानि पुनस्तानीत्याह-'सीयपिंड' ति शीतलः पिण्ड:-- आहारः, शीतश्चासौ पिण्डश्च शीतपिण्डः। बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : सूचितं--यदि शरीरयापना भवति तदैव निषेवेत, यदि त्वतिवातोद्रेकादिना तद्यापनैव न स्यात्ततो न निषेवेतापि, गच्छगतापेक्षमेतत्, तन्निर्गतश्चैतान्येव यापनार्थमपि निषेवेत। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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