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________________ उत्तरज्झयणाणि १५२ अध्ययन ८ : श्लोक ६-६ टि० १०-१६ व्यत्यस्त में ढूंढना अधिक उपयुक्त है। भाषाशास्त्र की दृष्टि से सकते हैं । सत्पुरुष — सबल व्यक्तियों पर उनका कोई प्रभाव नहीं यह वोच्चत्थ के अधिक निकट है। होता । मकड़ी का तन्तु मच्छर को बांध सकता है, पर हाथी को नहीं बांध सकता । १०. मन्द या मूढ ( मंदिए मूढे ) चूर्णि में मंद का अर्थ है-स्थूलबुद्धि वाला ।' चूर्णिकार ने महाराष्ट्र में मंद के प्रचलित अर्थ का भी उल्लेख किया है। वहां उपचित-स्थूल शरीर वाले को भी 'मंद' कहते हैं और अपचितकृश शरीर वाले को भी 'मंद' कहते हैं । मूढ शब्द के दो अर्थ हैं—कार्य और अकार्य के विवेक से विकल अथवा श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में आसक्त । * वैकल्पिक रूप से बाल, मंद और मूढ — इन तीनों शब्दों को एकार्थक भी माना है। * शान्त्याचार्य के अनुसार मंद वह है जो धर्म-कार्य में अनुद्यत है और मूढ वह है जो मोह से आकुल है। ११. श्लेष्म में (खेलॉग) चूर्ण में खेल का अर्थ 'चिक्कन' किया है। बृहद्वृत्ति में खेल का अर्थ ' श्लेष्म' किया है। किन्तु श्लेष्म इसकी संस्कृत छाया नहीं है। जाल सरपेन्टियर ने इसका संस्कृत रूप - 'वेट''वेद' दिया है ।" 'वेड' का भी एक अर्थ चिकनाई श्लेष्म होता है। राजवार्तिक में इसका संस्कृत रूप 'क्ष्वेल' मिलता है। यही सर्वाधिक है । उपयुक्त १२. अधीर पुरुषों द्वारा (अधीर पुरिसेहिं) धीर का प्रतिपक्ष है— अधीर । देखें ७।२८, २६ का टिप्पण । १३. समुद्र को (अतरं) चूर्णि में 'अतर' का अर्थ समुद्र है। वृत्ति में इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - जिसे तैरना अशक्य हो । तात्पर्यार्थ में इसके तीन अर्थ हैं— (१) विषयगण (२) भव या संसार तथा (३) समुद्र ।" वृत्तिकार ने एक सुन्दर श्लोक उद्धृत कर प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य स्पष्ट किया है१२. विषयगण: कापुरुषं करोति वशवर्तिनं न सत्पुरुषम् । नाति मशकं एव हि लूतातन्तुर्न मातंगम् ॥ इन्द्रियों के विषय दुर्बल व्यक्ति को ही अपने वश में कर - 9. उत्तराध्ययन, चूर्णि, पृ० १७२ जस्स थूला बुद्धि सो मंदबुद्धी भण्णइ । २. वही, चूर्णि, पृ० १७२ उवचए धूलसरीरो मरहट्ठाणं मंदो भन्नति, अवचए जो किससरीरो सोवि मंदो भण्णति । ३. वही, चूर्णि, पृ० १७२ मूढो णाम कज्जाकज्जमयाणाणो, सोतिंदियविसदोदो ( यवसट्टो) वा । वही, चूर्णि, पृ० १७२ अहवा बालमंदमूढ शक्रपुरन्दरवदेकार्थमेव । ४. ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २६१: मंदिए त्ति सूत्रत्वान् मन्दो — धर्मकार्यकरणं प्रति अनुद्यतः, मूढो — मोहाकुलितमानसः । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७२ खेलेण चिक्कणेण । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र २६१ : 'खेले' श्लेष्मणि । उत्तराध्ययन, पृ० ३०८ Jain Education International १४. पापमयी दृष्टियों से (पावियाहिं दिट्ठीहिं) शान्त्याचार्य ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैंप्रापिकाभिर्दृष्टिभिः और पापिकाभिर्दृष्टिभिः । प्रथम का अर्थ है'नरक को प्राप्त करने वाली दृष्टि ।' दूसरे का अर्थ है'पापमयी, परस्पर विरोधी आदि दोषों से दूषित दृष्टि' अथवा पाप-हेतुक दृष्टि ।" वास्तविक अर्थ यही है । पापिकादृष्टि के आशय को स्पष्ट करते हुए उद्धरण प्रस्तुत किए गए हैं। जैसे*न हिंस्यात् सर्वभूतानि । * "श्वेतं लभेत वायव्यां दिशि भूतिकामः * "ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेव, इन्द्राय शात्रियं मरुदुद्भ्यो वैश्यं तपसे शूदम् तथा च "यस्य बुद्धि में लिप्यते, हत्वा सर्वमिदं जगत्। आकाशमिव पंकेन, न स पापेन लिप्यते ।।" अर्थात् एक ओर वे कहते हैं- -' सब जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए।' दूसरी ओर वे कहते हैं— ऐश्वर्य चाहने वाले को वायव्यकोण में श्वेत बकरे की, ब्रह्म के लिए ब्राह्मण की, पुरुष इन्द्र के लिए क्षत्रिय की, मरुत् के लिए वैश्य की और तप के लिए शूद्र की बलि कर देनी चाहिए। यह परस्पर विरोधी दृष्टिकोण है। जैसे आकाश पंक से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सारे संसार की हत्या करके भी जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह पाप से लिप्त नहीं होता। यह पाप हेतुक दृष्टिकोण है। १५. उन आय - तीर्थंकरों ने (आरिएहिं ) यहां आर्य शब्द तीर्थंकर के लिए प्रयुक्त है । 'जिन्होंने साधु-धर्म का प्रज्ञापन किया इस निगमात्मक वाक्यांश से 'आर्य' शब्द का प्रयोग तीर्थंकर के लिए भी अभिप्रेत है। १६. समित (सम्यक् प्रवृत्त) (समिए) चूर्णिकार ने इसका अर्थ- शमित, शांत किया है।" वृत्तिकार ने पांच समितियों से युक्त को 'समित' (जागरूकतापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला) बतलाया है। ६. तत्त्वार्थ राजवार्तिक ३।३६, पृ० २०३ : क्ष्वेली निष्ठीवनमौषधिर्येषां ते क्ष्वेलौषधिप्राप्ताः । १०. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १७२ ११. बृहद्वृत्ति, पत्र २६२ : अतरं अतरं नीरधिम् । १२. वही, पत्र २६२ । १३. वही, पत्र २६२ 'पावियाहिं' ति प्रापयन्ति नरकमिति प्रापिकास्ताभिः, यद्वा- पापा एव पापिकास्ताभिः परस्परविरोधादिदोषात् स्वरूपेणैव कुत्सिताभिः । १४. वही, पत्र २६२, २६३। १५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७३ : सम्यक् इतः शमितः, शान्त इत्यर्थः । १६. बृहद्वृत्ति, पत्र २६३ : समितः समितिमान् इति । For Private & Personal Use Only अतरो णाम समुद्दो । तरीतुमशक्यं विषयगणं भवं वा... www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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