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________________ उत्तरज्झयणाणि २९० अध्ययन १८ : श्लोक २६-३४ मायोक्तमेतत् तु मृषाभाषा निरर्थिका। संयच्छन्नप्यहम् वसामि ईर च।। सर्वे ते विदिता मम मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः। विद्यमाने परे लोके सम्यग् जानाम्यात्मानम्।। अहमासं महाप्राणे द्युतिमान् वर्षशतोपमः। या सा पाली महापाली दिव्या वर्षशतोपमा।। "इन एकान्त-दृष्टि वाले क्रियावादी आदि वादियों ने जो कहा है, वह माया-पूर्ण है इसलिए वह मिथ्या-वचन है, निरर्थक है। मैं उन माया-पूर्ण एकान्तवादों से बच कर रहता हूं और चलता हूं।"* "मैंने उन सब एकान्तदृष्टि वालों को जान लिया है। वे मिथ्या-दृष्टि और अनार्य हैं। मैं परलोक के अस्तित्व में आत्मा को भलीभांति जानता हूं।" “मैं महाप्राण" नामक विमान में कान्तिमान देव था। मैंने वहां पूर्ण आयु का भोग किया। जैसे यहां सी वर्ष की आयु पूर्ण होती है, वैसे ही देवलोक में पल्योपम और सागरोपम की आयु पूर्ण मानी जाती है।" “वह मैं ब्रह्मलोक से च्युत होकर मनुष्य-लोक में आया हूं। मैं जिस प्रकार अपनी आयु को जानता हूं उसी प्रकार दूसरों की आयु को भी जानता हूं।"१८ अथ च्युतो ब्रह्मलोकात् मानुष्यं भवमागतः। आत्मनश्च परेषां च आयुर्जानामि यथा तथा।। २६.मायावुइयमेयं तु मुसाभासा निरत्थिया। संजममाणो वि अहं वसामि इरियामि य।। २७.सब्वे ते विइया मज्झं मिच्छादिट्ठी अणारिया। विज्जमाणे परे लोए सम्मं जाणामि अप्पगं ।। २८.अहमासी महापाणे जुइमं वरिससओवमे। जा सा पाली महापाली दिव्वा वरिससओवमा।। २६.से चुए बंभलोगाओ माणुस्सं भवमागए। अप्पणो य परेसिं च आउं जाणे जहा तहा।। ३०.नाणा रुई च छंदं च परिवज्जेज्ज संजए। अणट्ठा जे य सव्वत्था इइ विज्जामणुसंचरे।। ३१.पडिक्कमामि पसिणाणं परमंतेहिं वा पुणो। अहो उठ्ठिए अहोरायं इइ विज्जा तवं चरे। ३२.जं च मे पुच्छसी काले सम्मं सुद्धेण चेयसा। ताई पाउकरे बुद्ध तं नाणं जिणसासणे।। ३३.किरियं च रोयए धीरे अकिरियं परिवज्जए। दिट्ठीए दिट्ठिसंपन्ने धम्म चर सुदुच्चरं।। ३४.एयं पुण्णपयं सोच्चा अत्थधम्मोवसोहियं । भरहो वि भारहं वासं चेच्चा कामाइ पव्वए।। नाना रुचिं च छन्दश्च परिवर्जयेत् संयतः। अनर्था ये च सर्वार्थाः इति विद्यामनुसंचरेः।। प्रतिक्रमामि प्रश्नेभ्यः परमन्त्रेभ्यो वा पुनः। अहो उत्थितोऽहोरात्रम् इति विद्वान् तपश्चरेः।। यच्च मां पृच्छसि काले सम्यक् शुद्धेन चेतसा। तत् प्रादुरकरोद् बुद्धः तज्ज्ञानं जिनशासने।। क्रियां च रोचयेद् धीरः अक्रियां परिवर्जयेत्। दृष्ट्या दृष्टिसंपन्नः धर्मं चर सुदुश्चरम्।। एतत् पुण्यपदं श्रुत्वा अर्थधर्मोपशोभितम्। भरतोऽपि भारतं वर्ष त्यक्त्वा कामान् प्रावजन्।। "संयमी को नाना प्रकार की रुचि अभिप्राय और जो सब प्रकार के अनर्थ२० हैं उनका वर्जन करना चाहिए-इस विद्या के पथ पर तुम्हारा संचरण हो।"—(क्षत्रिय मुनि ने राजर्षि से कहा“मैं (शुभाशुभ सूचक) प्रश्नों और गृहस्थ-कार्य-संबंधी मंत्रणाओं से दूर रहता हूं। अहो ! मैं दिन-रात धर्माचरण के लिए सावधान रहता हूं--यह समझ कर तुम तप का आचरण करो।" "जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध-चित्त से आयु के विषय में पूछते हो, उसे सर्वज्ञ भगवान् ने प्रकट किया है, वह ज्ञान जिनशासन में विद्यमान है।"२३ “धीर-पुरुष को क्रियावाद पर रुचि करनी चाहिए और अक्रियावाद" को त्याग देना चाहिए। सम्यक् दृष्टि के द्वारा दृष्टि सम्पन्न होकर तुम सुदुश्चर धर्म का आचरण करो। अर्थ (मोक्ष) और धर्म से उपशोभित इस पवित्र उपदेश को सुनकर भरत चक्रवर्ती ने भारतवर्ष और कामभोगों को छोड़कर प्रव्रज्या ली। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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