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________________ संजयीय २९१ अध्ययन १८ : श्लोक ३५-४३ सगरो पिसागरान्तं भरतवर्ष नराधिपः। ऐश्वर्यं केवलं हित्वा दयया परिनिर्वृतः।। “सगर चक्रवर्ती सागर पर्यन्त५ भारतवर्ष और पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ अहिंसा की आराधना कर मुक्त हुए।" “महर्द्धिक और महान् यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या ली।" त्यक्चा भारतं वर्ष चक्रवर्ती महर्द्धिकः। प्रव्रज्यामभ्युपगतः मघवा नाम महायशाः।। “महर्द्धिक राजा सनत्कुमार चक्रवर्ती ने पुत्र को राज्य पर स्थापित कर तपश्चरण किया।" "महर्द्धिक और लोक में शान्ति करने वाले शान्तिनाथ चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर अनुत्तर गति प्राप्त की।" ३५.सगरो वि सागरंतं भरहवासं नराहिवो। इस्सरियं केवलं हिच्या दयाए परिनिव्वुडे।। ३६.चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिडिओ। पव्वज्जमब्भुवगओ मघवं नाम महाजसो।। ३७.सणंकुमारो मणुस्सिदो चक्कवट्टी महिडिओ। पुत्तं रज्जे ठवित्ताणं सो वि राया तवं चरे।। ३८.चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिडिओ। संती संतिकरे लोए पत्तो गइमणुत्तरं ।। ३६.इक्खागरायवसभो कुंथू नाम नराहिवो। विक्खायकित्ती धिइम मोक्खं गओ अणुत्तरं ।। ४०.सागरंतं जहित्ताणं भरहं वासं नरीसरो। अरो य अरयं पत्तो पत्तो गइमणुत्तरं ।। ४१.चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी नराहिओ। चइत्ता उत्तमे भोए महापउमे तवं चरे।। ४२.एगच्छत्तं पसाहित्ता महिं माणनिसूरणो। हरिसेणी मणुस्सिदो पत्तो गइमणुत्तरं ।। ४३.अन्निओ रायसहस्सेहिं सुपरिच्चाई दमं चरे। जयनामो जिणक्खायं पत्तो गइमणुत्तरं ।। सनत्कुमारो मनुष्येन्द्रः चक्रवर्ती महद्धिकः । पुत्रं राज्ये स्थापयित्वा सोऽपि राजा तपोऽचरत् ।। त्यक्वा भारतं वर्ष चक्रवर्ती महाद्धिकः। शान्तिः शान्तिकरो लोके प्राप्तो गतिमनुत्तराम् ।। इक्ष्वाकुराजवृषभः कुन्थुर्नाम नराधिपः। विख्यातकीर्तिधृतिमान् मोक्षं गतोऽनुत्तरम् ।। सागरान्तं हित्वा भारतं वर्ष नरेश्वरः। अरश्चारजः प्राप्तः प्राप्तो गतिमनुत्तराम्।। त्यक्त्वा भारतं वर्ष चक्रवर्ती नराधिपः। त्यक्चा उत्तमान् भोगान् महापद्मस्तपोऽचरत् ।। "इक्ष्वाकु कुल के राजाओं में श्रेष्ठ, विख्यात कीर्ति वाले, धृतिमान् भगवान् कुन्थु नरेश्वर ने अनुत्तर मोक्ष प्राप्त किया।" “सागर पर्यन्त भारतवर्ष को छोड़कर, कर्मरज से मुक्त होकर 'अर' नरेश्वर ने अनुत्तर गति प्राप्त की।" “विपुल राज्य, सेना और वाहन तथा उत्तम भोगों को छोड़कर महापद्म चक्रवर्ती ने तप का आचरण किया।" “(शत्रु-राजाओं का) मान-मर्दन करने वाले हरिषेण चक्रवर्ती ने पृथ्वी पर एक-छत्र शासन किया, फिर अनुत्तर गति प्राप्त की।" एकच्छत्रां प्रसाध्य महीं माननिषूदनः। हरिषेणो मनुष्येन्द्रः प्राप्तो गतिमनुत्तराम्।। अन्वितो राजसहनैः सुपरित्यागी दममचरत् । जयनामा जिनाख्यातं प्राप्तो गतिमनुत्तराम् ।। "जय चक्रवर्ती ने हजार राजाओं के साथ राज्य का परित्याग कर जिन-भाषित दम (संयम) का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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