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________________ उत्तरज्झयणाणि ४४. दसणरज्जं मुइयं चइत्ताणं मुणी चरे । दसण्णभद्दो निक्खंतो सक्खं सक्केण चोड़ओ ।। ( नमी नमेइ अप्पाणं सक्खं सक्केण चोइओ । चइऊण गेहं वहदेही सामण्णे पज्जुवद्विओ । ।) ४५. करकंडू कलिंगेसु पंचालेसु स दुम्मुहो । नमी राया विदेहेसु गंधारेसु य नग्गई ।। ४६. एए नरिंदवसभा निक्खता जिणसासणे । पुत्ते रज्जे ठवित्ताणं सामण्णे पज्जुवट्ठिया । । ४७. सोवीररायवसभो चेच्चा रज्जं मुणी चरे । उद्दायणो पव्वइओ पत्ती गइमणुत्तरं । ४८. तहेव कासीराया सेओ सव्यपरक्कमे । कामभोगे परिच्चज्ज पहणे कम्ममहावणं || ४६. तहेव विजओ राया अणट्ठाकित्ति पव्वए । रज्जं तु गुणसमिद्धं पयहित्तु महाजसो || ५०. तहेवुग्गं तवं किच्चा अव्वक्खित्तेण चेयसा । महाबलो रायरिसी अद्दाय सिरसा सिरं ।। ५१. कई धीरो अहेऊहिं उम्मत्तो व्व महिं चरे ? | एए विसेसमादाय सूरा दढपरक्कमा ।। Jain Education International २९२ दशार्णराज्यं मुदितं त्यक्त्वा मुनिरचरत् । दशार्णभद्रो निष्कान्तः साक्षाच्छक्रेण चोदितः ।। ( नमिर्नामयति आत्मानं साक्षाच्छक्रेण चोदितः त्यक्त्वा गेहं वैदेही श्रामण्ये पर्युपस्थितः ।।) करकण्डुः कलिङ्गेषु पञ्चालेषु च द्विमुखः । नमो राजा विदेहेषु गान्धारेषु च नग्गतिः ।। एते नरेन्द्रवृषभाः निष्क्रान्ता जिनशासने । पुत्रान् राज्ये स्थापयित्वा श्रमन्ये पर्युपस्थिताः ।। सौवीरराजवृषभः त्यक्त्वा राज्यं मुनिरचरत् । उद्रायणः प्रव्रजितः प्राप्तो गतिमनुत्तराम् ।। तथैव काशीराजः श्वेतः सत्यपराक्रमः । कामभोगान् परित्यज्य प्राह कर्ममहावनम् ।। तथैव विजयो राजा अनष्टकीर्तिः प्राव्रजत् । राज्य तु गुणसमुख प्रहाय महायशाः ।। तथैवोग्रं तपः कृत्वा अव्याक्षिप्तेन चेतसा । महाबलो राजर्षिः आदित शिरसा शिरः ।। कथं धीरः अहेतुभिः उन्मत्त इव महीं चरेत् ? । एते विशेषमादाय शूरा दृढपराक्रमाः ।। अध्ययन १८ : श्लोक ४४-५१ “साक्षात् शक्र के द्वारा प्रेरित दशार्णभद्र ने दशार्ण देश का प्रमुदित राज्य छोड़कर प्रव्रज्या ली और मुनि धर्म का आचरण किया।” को त्याग " (विदेह के अधिपति नमिराज ने, जो गृह कर श्रामण्य में उपस्थित हुए और देवेन्द्र ने जिन्हें साक्षात् प्रेरित किया, आत्मा को नमा लिया वे अत्यन्त नम्र बन गये ।) २७ “कलिंग में करकण्डु, पांचाल में द्विमुख, विदेह में नमि राजा और गान्धार में नग्गति” “राजाओं में वृषभ के समान ये अपने-अपने पुत्रों को राज्य पर स्थापित कर जिन शासन में प्रव्रजित हुए और श्रमण-धर्म में सदा यत्नशील रहे ।" “सौवीर राजाओं में वृषभ के समान उद्रायण राजा ने राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली, मुनि-धर्म का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की।” “इसी प्रकार सत्य के लिए पराक्रम करने वाले काशीराज श्वेत ने काम भोगों का परित्याग कर कर्म रूपी महावन का उन्मूलन किया।” “इसी प्रकार विमल - कीर्ति, महायशस्वी विजय राजा ने गुण से समृद्ध राज्य को छोड़ कर जिन शासन में प्रव्रज्या ली।" - " इसी प्रकार अनाकुल- चित्त से उग्र तपस्या कर राजर्षि महाबल ने अपना शिर देकर शिर (मोक्ष) को प्राप्त किया । "३" "ये भरत आदि शूर और दृढ़ पराक्रम-शाली राजा दूसरे धर्म शासनों से जैन शासन में विशेषता पाकर यहीं प्रव्रजित हुए तो फिर धीर पुरुष एकान्त - दृष्टिमय अहेतुवादों के द्वारा उन्मत्त की तरह कैसे पृथ्वी पर विचरण करे ?" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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