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________________ चित्र-संभूतीय २३५ अध्ययन १३ : श्लोक १६-२० टि०११-१४ नृत्त लय तथा तालमूलक अवस्थाकृति को 'नृत्त' कहते पीड़ित होता है। जो दूसरों को विस्मित करने के लिए उन्हीं हैं। नृत्य और नृत्त मूक होते हैं। इनमें वाचिक साधन का प्रयोग आभरणों को स्वयं धारण करता है तब कार्य की गुरुता को ध्यान नहीं होता। मूक नृत्य की भाषा अनुभाव (सात्त्विक-भाव) और में रखकर भार को महसूस नहीं करता। पर वे वास्तव में मुद्राएं हैं। नृत्य द्वारा भाव-प्रदर्शन होता है और नृत्त द्वारा लय भारभूत ही होते हैं।' और ताल-प्रदर्शन होता है। ___ एक श्रेष्टिपुत्र की पुत्रवधू बहुत प्रेमालु और कोमलांगी ११. (श्लोक १६) थी। एक बार सासू ने कहा-बहू ! चौक में जो पत्थर की लोढी प्रस्तुत श्लोक में जिन चार बातों का कथन किया गया है. पड़ी है, उसे उठा ला। वह बोली-'मां! वह बहत भारी है. मैं यह सापेक्ष वक्तव्य है। यह विराग या परमार्थ की भूमिका का उसे उठा नहीं सकती। पति ने सोचा-यह शारीरिक श्रम से जी दृष्टिकोण है। चुरा रही है। उसने एक उपाय सोचा। उसने उस पत्थर पर (१) सव्वं विलवियं गीयं-- स्वर्ण का झोल चढ़वाया और उसे गले के आभूषण का रूप दे “विलवियं" का अर्थ है--विलाप। वृत्तिकार ने विलाप के दिया। उसे लेकर वह पत्नी के पास आकर बोला-मैं स्वर्ण का दो हेतु माने हैं-निरर्थकता और रुदनमूलकता। गीत विलाप एक आभूषण लाया हूं। वह भारी अवश्य है, पर है सुन्दर और इसलिए है कि वह मत्त बालकों की भांति निरर्थक होता है। वह मूल्यवान्। पत्नी बोली—कोई चिन्ता नहीं है। मैं उसे गले में विलाप इसलिए है कि वह विधवा या परदेशांतर गए हुए पति की धारण कर लूंगी। उसने उसे गले में पहन लिया। वह भारी-भरकम पत्नी के रुदन से उद्भूत होता है, इसलिए वह रुदनधर्मा है। था। गले के लिए आरामदेय भी नहीं था। पर था स्वर्ण का नौकर अपने कुपित स्वामी को प्रसन्न करने के लिए आभूषण। कुछ दिन बीते। एक दिन पति ने मुस्करा कर कहाजो-जो वचन कहता है, अपने आपको दास की भांति खड़ा प्रिये ! तुमने उस दिन कहा था कि पत्थर की लोढी भारी है, रखकर, प्रणत होकर जो कुछ याचना करता है, वह सारा विलाप इसलिए उठा नहीं सकती। पर तुम बीस दिनों से उसी लोढी को ही है। प्रोषितभर्तृका स्त्री और नौकर जो क्रियाएं करते हैं, वे सब गले में लटकाए घूम रही हो। क्या भार नहीं लगा ? इतना सुनते गीत कहलाती हैं। क्या यह विलाप नहीं है ? रोग से अभिभूत हा व अथवा इष्ट के वियोग से दुःखी व्यक्ति क्या विलाप नहीं करता? १२. दाना न.....निवास किया (छामु) उसी प्रकार जो गीत आदि गाते हैं, वे राग की वेदना से अभिभूत वृत्ति में 'वुच्छा' और 'मु' को अलग-अलग मानकर होकर गाते हैं। यह भी विलाप ही है।' 'वुच्छा' का अर्थ निवास किया है और 'मु' का अर्थ- हम दोनों (२) सव्वं नटें विवियं ने किया है। चूर्णिकार ने विडंबना की व्याख्या इस प्रकार की है-जो १३. वर्तमान में (दाणिसिं) स्त्री या पुरुष यक्षाविष्ट है, शत्रु पक्ष के द्वारा अवरुद्ध है अथवा बृहद्वृत्तिकार ने 'सिं' को पद-पूर्ति के लिए माना है और पीकर उन्मत्त हो चुका है वह शरीर और वाणी से जो चेष्टाएं वैकल्पिक रूप में 'दाणिसिं' को देशी भाषा का शब्द मानकर करता है, वे सारी विडंबना हैं। इसी प्रकार जो स्त्री या पुरुष इसका अर्थ इदानीं-वर्तमान में किया है।' अपने स्वामी के परितोष के लिए अथवा किसी धनवान् के द्वारा १४. आदान-चारित्र धर्म की (आयाण) नियुक्त किए जाने पर शास्त्रीय विधि के अनुसार नाट्य का 'आयाण' के संस्कृत रूप दो बनते हैं-आदान सहारा लेकर हाथ, पैर, नयन, होठ आदि का संचालन करता और आयान। आगमों में यह शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है—विविध प्रकार की मुद्राओं में हावभाव करता हुआ नाचता हैहै, यह सारी विडंबना ही है। १. इन्द्रिय ५. व्रतों का स्वीकार । (३) सव्वे आभरणा मारा २. ज्ञान आदि। ६. संयम।" जो व्यक्ति किसी की आज्ञा का वशवर्ती होकर मुकुट आदि ३. मार्ग। ७. कर्म।२ आभरण धारण करता है, वह भार का अनुभव करता हुआ ४. आदि-प्रथम। ८. चारित्र।३ १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१६, २१७ ॥ ८. सूयगडो १।१।५३ : संति मे तओ आयाणा, जेहिं केरइ पावं । २. वही, पृ०२१७। ९. अणुओगदाराई, सूत्र ३१६ : से किं तं दस नामे?.....-आयाणपएणं। ३. वही, पृ० २१७। १०. सूयगडो २७।२२ : समणोवासगरस आयाणसो आमरणंताए। ४. वृहद्वृत्ति, पत्र ३८७ : वुक्छे ति उषितौ, 'मु' इत्यावां । ११. सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र २३५ : तथा मोक्षार्थिनाऽदीयते-गृह्यते इत्यादानं५. वही, पत्र ३८७ : इदानीम् काले 'सि' ति पूरेणे यद् वा 'दाणिसिं' ति संयमः। देशीयभाषयेदानीम्। १२. वही, पत्र २३५ : यदि वा मिथ्यात्वादिनादीयते इत्यादान-अष्टप्रकार ६. (क) सूयगडो १।१२।२२ : आयाणगुत्ते वलयाविमुक्के। कर्म। (ख) आयारो ६३५ : .....आयाणप्पभिई सुपणिहिए चरे। १३. उत्तरज्झयणाणि १३।२० : आयाणहेडं अभिणिक्खमाहि। ७. सृयगडो १।१४।१७ : आदाणमट्ठी वोदाणमोणं। चूर्णि पृ०२१८ : आदाणं णाम चारित्तं । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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