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________________ उत्तरज्झयणाणि २३४ अध्ययन १३ : श्लोक १२-१४ टि० ७-१० किन्तु कर्म-सिद्धांत के अनुसार चूर्णि का यह मंतव्य किए हैं—आश्चर्यकारी अथवा अनेक प्रकार का। विचारणीय है। निधत्ति में उद्वर्तना और अपवर्तना-दोनों होते वास्तव में यहां 'चित्त' (सं० चित्र) शब्द संबोधन है और हैं। निकाचित में कोई परिवर्तन नहीं होता। 'धणप्पभूयं' गृह का विशेषण है। ७. (श्लोक १२) जेकोबी ने भी यही मानकर अपने मंत के समर्थन में वयणप्पभूया-इसके संस्कृत रूप 'वचनाप्रभता' या ल्यूमेन को साक्ष्य माना है। 'वचनाल्पभूता....दोनों हो सकते हैं। दोनों का अर्थ है- १०. नाट्य (नट्टेहि) अल्पाक्षर वाली।' शान्त्याचार्य ने नट्ट की व्याख्या नाट्य और नृत्य इन दोनों सीलगुणोववेया इसका अर्थ है-शील और श्रुत से रूपों में की है। जिसमें बत्तीस पात्र हों, वह 'नाट्य' होता है। सम्पन्न । शील और गुण-इन दो शब्दों का अर्थ 'अपृथक' और जिसमें अंगहार (अंगविक्षेप) की प्रधानता हो, वह 'नृत्य' होता है। 'पृथक्'-दोनों रूप से किया जा सकता है। वृत्तिकार ने 'शील' भारतीय नृत्य के तीन विभाग हैं-नाट्य, नृत्य और नृत्त। का अर्थ चारित्र कर उसी को गुण माना है-चारित्र रूप गुण। नाट्य-किसी रस-मूलक अवस्था के अनुकरण को विकल्प में उन्होंने गुण का अर्थ श्रुत किया है। नाट्य कहते हैं। नाट्य के आठ रस होते हैं-शृङ्गार, हास्य, विशेषावश्यक भाष्य में 'चरणगुण' शब्द प्रयुक्त है। वृत्तिकार करुण, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स और अद्भुत । नवां शान्तरस मलधारी हेमचन्द्र ने इन दोनों शब्दों की व्याख्या इस प्रकार की है-३ नाट्य में नगण्य है। रस का आधार है भाव। भाव के उद्दीप्त चरण----महाव्रत, श्रमण-धर्म आदि मूलगुण अथवा सर्वचारित्र होने पर रस की सृष्टि होती है। या देशचारित्र। नाट्य की अवस्थानुकृति चार प्रकार के साधनों से होती गुण-उत्तरगुण अथवा दर्शन और ज्ञान। अज्जयंते—यह क्रियापद है। बृहद्वृत्तिकार ने 'अज्जयते' (१) आंगिक हाथ-पैर का संचालन। इसके अन्तर्गत (अर्जयन्ति) या 'जयंते' (यतन्ते) इन दोनों की व्याख्या की है। मुद्राएं हैं। 'अर्जयन्ति' अर्थात् पठन, श्रवण और अनुष्ठान द्वारा प्राप्त करते (२) वाचिक स्वर, वाणी तथा भाव का अनुकरण। हैं 'यतन्ते' क्रिया मानने पर तीसरे चरण का अनुवाद होगा- (३) आहार्य-वेशभूषा का अनुकरण। जिसे सुनकर चारित्रगुणयुक्त भिक्षु जिन-प्रवचन में यत्न करते हैं।' (४) सात्त्विक-सात्त्विक भावों का अनुकरण। ८. प्रासाद (आवसहा) सात्त्विक भाव आठ हैंप्रस्तुत श्लोक में मूलतः चार प्रकार के प्रासादों का उल्लेख (१) स्तम्भ-अंग-संचालन शक्ति का लोप होना है-उच्चोदय, मधु, कर्क और ब्रह्मा । श्लोक के प्रथम चरण में (२) प्रलय-संज्ञा का लोप होना। प्रयुक्त 'च' से 'मध्य' नामक प्रासाद का ग्रहण अभिप्रेत है। चूर्णि (३) रोमांचरोंगटे खड़े होना। और वृत्ति में इन पांचों प्रासादों का नामोल्लेख है, पर इनका (४) स्वेद-पसीना छलकना। स्वरूप-विमर्श नहीं है। इन पांच भवनों के अतिरिक्त भवन (५) वैवर्ण्य-रंग बदलना। चक्रवर्ती जहां चाहते हैं उसी स्थान में वकिरत्न द्वारा तैयार हो (६) वेपथु-कंपकंपी। जाते हैं। (७) अश्रु-आंसू बहाना। हरमन जेकोबी ने 'उच्चोदए' शब्द को तोड़कर 'उच्च' (८) वैस्वर्य-स्वर विकृत होना। और 'उदय'--नाम के प्रासाद मानकर पांच की संख्या पूरी की नृत्य-भाव-मूलक अवस्थानुकृति को 'नृत्य' कहते हैं। है। उन्होंने 'मध्य' नामक प्रासाद को नहीं माना है। भाव मन के विकार को कहते हैं। भाव दो प्रकार के होते हैं९. चित्र !...प्रचुर धन से पूर्ण (चित्त ! घणप्पभूयं) स्थायीभाव और संचारीभाव। स्थायीभाव हृदय पर देर तक वृत्तिकार ने 'चित्तधणप्पभूयं' ऐसा पद मानकर इसका अंकित रहते हैं। संचारीभाव तरंगों की भांति थोड़े काल के लिए संस्कृत रूप 'प्रभूतचित्रधनं' दिया है। उन्होंने 'चित्र' के दो अर्थ उठते हैं। इनकी संख्या तेतीस कही गई है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८५। ६. जैन सूत्राज, पृ०५८। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८५ : शीलं चारित्रं, तदेव गुणः, यद् वा गुणः पृथगेव ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८६ : चित्तधणप्पभूयं ति तत्र प्रभूत-बहुचित्रम्ज्ञानम् । ततः शीलगुणेन शीलगुणाभ्यां वा चारित्रज्ञानाभ्याम् । आश्चर्यमनेकप्रकारं वा धनमस्मिन्निति प्रभूतचित्रधनं, सूत्रे तु प्रभूतशब्दस्य ३. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १, शिष्यहिता व्याख्या, पृ०२। परनिपातः। ४. वृहद्वृत्ति, पत्र ३८५ : अज्जयंते त्ति अर्जयन्ति पठनश्रवणतदर्थानुष्ठाना- ८. जैन सूत्राज, पृ० ५८, फुटनोट नं १।। दिभिरावर्जयन्ति। यद्धा 'जं भिक्खुणो' इत्यत्र श्रुत्वेति शेषः, ततो यां ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८६ : ‘ण हिं' ति द्वात्रिंशत्पात्रोपलक्षितैर्नाट्यैर्नृत्यैर्वा श्रुत्वा 'जयंत' त्ति इह--अस्मिन् जिनप्रवचने 'यतन्ते' यत्नवन्तो भवन्ति। विविधाङ्गहारादिस्वरूपैः। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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