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________________ उत्तरज्झयणाणि २३६ अध्ययन १३ :श्लोक २१-३५ टि०१५-२४ ६. उपादान। कुछ लौकिक कृत्य करते हैं, रोते हैं, विलाप करते हैं, फिर उसे १०. परिग्रह। विस्मृत कर अपने स्वार्थ-संपादन के लिए आजीविका देने वाले ११. ज्ञान, दर्शन और चरित्र । दूसरे दाता का आश्रय ले लेते हैं। फिर वे कभी उसकी बात भी १५. प्रचुर (धणियं) नहीं करते, अनुगमन तो दूर रहा। यह देशीपद प्रचुर के अर्थ में प्रयुक्त है। २१. प्रचुर कर्म (कम्माइं महालयाई) १६. शुभ अनुष्ठान (पुण्णाई) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-अनन्त और दीर्घ यहां पुण्य पद धर्म के अर्थ में प्रयुक्त है। चौथे चरण में स्थिति वाले कर्म। उनको क्षीण करना कष्टसाध्य होता है, धर्म शब्द का प्रयोग भी है। 'पुव्वाइं अकुव्वमाणो' और 'धम्मं इसलिए दीर्घकाल तक उन्हें भोगना पड़ता है। अकाऊण'-इन दोनों में संबद्धता है। पुण्य नौ पदार्थों में एक वृत्ति में इसका मुख्य अर्थ प्रचुर या अनन्त है और पदार्थ है। उसका अर्थ है-शुभ कर्म पुद्गल का उदय। यहां यह वैकल्पिक अर्थ है-अत्यन्त चिकने कर्म, वैसे कर्म जिनका अर्थ प्रासंगिक नहीं है। अनुभाग-आश्लेष बहुत सघन हो।' १७. अंशधर (अंसहर) २२ (व) इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं-अंशधर और अंशहर। 'इव' अर्थ में चार अव्यय प्रयुक्त होते हैं-पिव, मिव, 'अंशधर' का अर्थ है-अपने जीवन का अंश देकर मरते हुए को विव और व। यहां 'व इव अर्थ में प्रयुक्त है।' बचाने वाला। 'अंशहर' का अर्थ है-दुःख में भाग बंटाने वाला। २३. आरंभ और परिग्रह में (आरंभ परिग्गहेसु) १८. ज्ञाति.....बांधव (नाइओ...बंधवा) आरम्भ और परिग्रह-यह एक युगल है। आरम्भ का ज्ञाति और बन्धु-इन दोनों शब्दों के अर्थ भिन्न-भिन्न अर्थ है-हिंसा और परिग्रह का अर्थ है-पदार्थ का संग्रह। हैं। जो दूरवर्ती स्वजन हैं, वे ज्ञाति कहलाते हैं। जो निकटवर्ती दोनों अन्योन्याश्रित हैं। परिग्रह हिंसामूलक होता है। हिंसा के सगे-संबंधी हैं, वे बन्धु कहलाते हैं।' लिए परिग्रह नहीं होता, परिग्रह के लिए हिंसा होती है, इसलिए १९. (एक्को.....अणुजाइ कम्म) हिंसा और परिग्रह साथ-साथ चलते हैं-हिंसा+परिग्रह, कर्मवाद का सिद्धांत है—प्राणी अकेला ही अपने दुःख परिग्रा परिग्रह+हिंसा। और सुख का अनुभव करता है। कोई भी उसमें हिस्सा नहीं स्थानांग सूत्र में जीव को अनेक वस्तुओं की अनुपलब्धि बंटाता। जैसे-वत्सो विन्दति मातरं-बछडा गाय के पीछे-पीट के आरम्भ और परिग्रह को मुख्य हेतु माना है-आरंभे चेव चलता है, वैसे ही कर्म कर्ता का अनुगमन करता है। कर्म का परिग्गहे चेव। सिद्धांत नितांत व्यक्तिवादी है। कर्म करने और भोगने में व्यक्ति २४. (श्लोक ३४-३५) केवल व्यक्ति रहता है। इस क्षेत्र में वह कभी सामुदायिक नहीं 'अणुत्तर'-अनुत्तर शब्द दो श्लोकों में चार बार प्रयुक्त बनता। है। चौंतीसवें श्लोक में वह काम-भोग और नरक का विशेषण २०. दूसरे दाता के पीछे चले जाते हैं (दायारमन्नं अणुसंकमति) है। पैंतीसवें में वह संयम और सिद्धि-गति का विशेषण है। __यह पद्यांश प्राचीन कौटुम्बिक परम्परा का द्योतक है। उस अनुत्तर का अर्थ है-प्रकृष्ट । ब्रह्मदत्त के काम-भोग प्रकृष्ट थे, समय घर का मुखिया मर जाने पर, दूसरे को मुखिया बना लिया इसलिए वह मर कर प्रकृष्ट (सर्वोत्कृष्ट) नरक में उत्पन्न हुआ। जाता था। घर का स्वामित्व उसी का हो जाता था। स्थानांग में बताया गया है कि ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मर कर सातवीं व्यक्ति जब मर जाता है तब ज्ञातिजन उसे यथाशीघ्र पृथ्वी अप्रतिष्ठान नामक नरक में गया। श्मशान घाट ले जाना चाहते हैं। वे उस शव को श्मशान में ले चित्र का संयम प्रकृष्ट था, इसलिए वह प्रकृष्ट (सर्वोत्कृष्ट जाकर लोकलाज से उसे जलाकर राख कर डालते हैं। वे फिर सुखमय) सिद्धिगति में गया। १. आयारो ३७३ : आयाणं (णिसिद्धा?) सगडभि। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८६ : ज्ञातयः-दूरवर्तिनः स्वजनाः ।.....बान्धवा२. वही ६५६ : एवं खु मुणी आयाणं.....। निकटवर्तिनः स्वजनाः। वृत्ति पत्र २२१ : आदानं-वस्त्रं कर्म वा। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१६ : कम्माई महालयाई.....अनन्तानीत्यर्थः, ३. आचारांग चूर्णि, पत्र २१७ : आयाणं नाणादि तियं। दुर्मोचकत्वाच्च चिरस्थितिकानि। ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१८ : अंशो नाम दुःखभागः, तमस्य न ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : महालयाणि ति अतिशयमहान्ति, महान् वा हरन्ति, अहवा स्वजीवितांशेन ण तं मरतं धारयति। लयः-कर्माश्लेषो येषु तानि। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३८८-३८९ : अंश-प्रक्रमाज्जीवितव्यभागं धारयति- ८. ठाणे २४१-६२। मृत्युना नीयमानं रक्षन्तीत्यंशधराः......अथवा अंशो-दुःखभागस्तं हरन्ति-- ६. ठाणं २४४८ : दो चक्कवट्टी अपरिचत्तकामभोगा कालमासे काल अपनयन्ति ये ते अंशहरा भवन्तीति। किच्चा असेहत्तमाए पुढवीए अपइट्ठाणे णरए नेरइत्ताए उववन्ना तं जहा-सुभूमे चेव बंभदते चेय। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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