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________________ विनयश्रुत १९ अध्ययन १ : श्लोक २०-२५ टि० ३६-४३ हैं। जो क्षीणपुण्य हैं, क्या उनके शरीर पर कभी चन्दन रस का ३. तदुभयात्मक शैली—यह कहीं सूत्रात्मक और कहीं पात होता है? व्याख्यात्मक दोनों प्रकार की होती है। ३६. समीप रहे (उवचिठे) वृत्तिकार ने सूत्र से कालिक और उत्कालिक आगम तथा चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'पास में बैठना' किया है। अर्थ से उनके अभिधेय को ग्रहण किया है। दोनों का समन्वित टीकाओं में इसका अर्थ है-'मैं आपका अभिवादन करता रूप है तदुभय। हूं'—ऐसा कहता हुआ शिष्य सविनय गुरु के पास चला ४१. (श्लोक २४) जाये। प्रस्तुत श्लोक में असत्य और निश्चकारिणी भाषा न ३७. (आलवन्ते लवन्ते वा) बोलने तथा भाषा के दोषों के परिहार का निर्देश है। आलाप और लपन-ये दो शब्द हैं। आलाप का अर्थ वृत्तिकार नेमिचन्द्र ने असत्य बोलने से होने वाले छह है.-थोड़ा बोलना या प्रश्न आदि पूछना। लपन का अर्थ है-- दोषों का निर्देश किया हैबार-बार बोलना या अनेक प्रकार से बोलना। (१) धर्म की हानि (४) अर्थ की हानि ३८. ककहू बैठ (उक्कुडुओ) (२) अविश्वास (५) निंदा स्थानंग में पांच प्रकार की निषद्या का उल्लेख है। उनमें (३) शारीरिक उत्ताप (६) दुर्गति। उत्कुटुका एक निषद्या है। दोनों पैरों को भूमि पर टिका कर, अवधारिणी या निश्चयकारिणी भाषा न बोलने के प्रसंग में दोनों पुतों को भूमि से न छुआते हुए, जमीन पर बैठना वृत्तिकार ने एक सुन्दर गाथा प्रस्तुत कर उसके वास्तविक कारण उत्कटुकासन है। इसका प्रभाव वीर्यग्रन्थियों पर पड़ता है। यह को निर्दिष्ट किया हैब्रह्मचर्य की साधना में बहुत फलदायी है। यह विनय की एक 'अन्नह परिचिंतिज्जइ, कजं परिणमइ अन्नहा चेव। विहिवसयाण जियाणं, मुहुत्तमेत्तं पि बहुविग्घं।। ३९. जो शिष्य विनययुक्त हो (विणयजुत्तस्स) -प्रत्येक प्राणी भाग्य के अधीन है, कर्मों के अधीन है। विनययुक्त मुनि का व्यवहार कैसा हो? वह गुरु के वह सोचता कुछ है और हो कुछ और ही जाता है। जीवन का प्रत्येक क्षण विघ्नों से भरा पड़ा है।" सम्मुख अपनी जिज्ञासा को कैसे प्रस्तुत करे? वह गुरु के समक्ष । असत्य भाषण, सावद्य का अनुमोदन करने वाली वाणी, कैसे अवस्थित रहे-इन प्रश्नों के संदर्भ में सूत्रकार ने कुछ निर्देश दिए हैं पापकारी भाषा, क्रोध-मान-माया और लोभ के वशीभूत होकर बोले जाने वाली भाषा ये सारी भाषाएं सदोष हैं। मुनि आसन पर आसीन होकर तथा शय्या पर स्थित होकर गुरु से जिज्ञासा न करे। वह गुरु के पास उपस्थित ४२. वेनों के प्रयोजन के लिए अथवा अकारण ही (उभयस्सन्तरेण) होकर, दोनों हाथ जोड़कर, उत्कटुक आसन में बैठकर जिज्ञासा टीकाओं में इसका अथ है—दोनों (अपने और पराए) के करे। प्रयोजन के लिए अथवा प्रयोजन के बिना।" चूर्णि में इसका अर्थ __ वर्तमान में उत्कटुक आसन के स्थान पर वंदनासन में दो या बहुत व्यक्तियों के बीच में बोलना किया है। बैठने की परम्परा प्रचलित है। ४३. निरर्थक (निरठ्ठ) ४०. सूत्र, अर्थ और तदुभय (सूत्तं अत्थं च तदुभयं) सुखबोधा टीका में इस शब्द की व्याख्या में एक प्राचीन आगम की रचना शैली तीन प्रकार की है श्लोक उद्धृत है१. सूत्रात्मक शैली—यह संक्षिप्त और सूचक मात्र 'एष वन्थ्यासुतो याति, खपुष्पकृतशेखरः। होती है। मृगतृष्णाम्भसि स्नात शश,गधनुर्धरः।।' २. अर्थात्मक शैली-यह व्याख्यात्मक होती है। ---देखो, यह बांझ का बेटा जा रहा है। यह आकाश मुद्रा है। १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३५ : उपेत्यतिष्ठेत वा चिठेज्जा। २. (क) बृहवृत्ति, पत्र ५५ : 'उपतिष्ठेत' मस्तकेनाभिवन्द इत्यादि वदन् सविनयमुपसप्पेत्। (ख) सुखबोधा, पत्र । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५ : आङ्गिति इषल्लपति वदति। ४. अभिधान चिन्तामणि कोष, २१८८ : आपृच्छालाप....। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५ : लपति या वारं वारनेकधा वाऽभिदधति। ६. ठाणं ५/५०: पंच णिसिज्जाओ पण्णत्ताओ, तं जहा–उक्कुडुया, गोदोहिया, समपायपुता, पलियंका, अद्धपलियंका। ७. उत्तरज्झयणाणि १।२१,२३ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६। ६. 'धर्महानिरविश्वासो, देहार्थव्यसनं तथा । असत्यभाषिणां निंदा, दुर्गतिश्चोपजायते।।' १०. सुखबोधा, पत्र । ११. (क) बृहवृत्ति, पत्र ५७ : 'उभयस्स' त्ति आत्मनः परस्य च, प्रयोजनमिति गम्यते 'अन्तरेण व' त्ति विना वा प्रयोजनमित्युपस्कारः। (ख) सुखबोधा, पत्र १०। १२. उत्तरज्झयणाणि चूर्णि, पृ. ३६,३७। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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