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________________ उत्तरज्झयणाणि कुसुमों का सेहरा बांधे हुए है। इसने मृगतृष्णा के पानी में स्नान कर हाथ में खरगोश के सींग का धनुष्य ले रखा है।" ४४. मर्मभेदी वचन (मम्मयं ) चूर्णि के अनुसार 'मर्म' का निरुक्त है— ' म्रियते येन तन् मर्म'- जिससे व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है, वह है मर्म । जैसे किसी को कहना कि तुम अपनी पत्नी के दास हो---' इत्थीकारी भवान्'- यह मर्म वचन है । मर्म शब्द के अनेक अर्थ होते हैं रहस्यमय, कटुक, पीड़ाकारक । वृत्तिकार ने यहां इसकी व्याख्या कटुवचन के रूप में की है। काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना मर्मभेदी वचन है। यह यथार्थ होने पर भी मर्म को छूता है । यह अति संक्लेशकारी होता है । चूर्णिकार ने एक श्लोक के माध्यम से बताया है कि जैसे मर्मभेदी वचन पीड़ाकारक होता है वैसे ही जन्म संबंधी और कार्य संबंधी वचन भी मर्मभेदी वचन की श्रेणी में ही आते हैं। किसी के जन्म का उल्लेख करते हुए कुछ कहना, आजीविका के सम्बन्ध में कुछ कहना, व्यक्ति के मर्म को छूने वाला होता है । मुनि इन तीनों का परिहार करे, क्योंकि मर्मविद्ध व्यक्ति स्वयं ही आत्महत्या कर सकता है या मर्मकारी वचन कहने वाले की हत्या कर सकता है 'मम्मं जम्मं कम्मं, तिन्नि वि एयाइं परिहरिज्जासि । मा जम्ममम्मविखे, मरेज्ज मारेज्ज वा किचि ।।" ४५. ( समरे सु अगारेसु सन्धीसु ) — समरेसु पूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ 'लोहार की शाला' है । शान्त्याचार्य इसका अर्थ नाई की दुकान, लोहार की शाला और अन्य नीच स्थान करते हैं। उन्होंने समर का दूसरा अर्थ युद्ध भी किया है। नेमिचन्द्र के अनुसार इसका अर्थ नाई की दुकान है। सर मोनियर विलियम्स ने समर का अर्थ 'समूह का एकत्रित होना' किया है। यह भी अर्थ प्रकरण की दृष्टि से ग्राह्य १. सुखबोधा, पत्र १० । २. ३. वही, पृ. ३८६ । २० अध्ययन १ : श्लोक २६-२६ टि० ४४-४८ हो सकता है। समय का संस्कृत रूप स्मर भी होता है। इसका अर्थ है कामदेव सम्बन्धी या कामदेव का मंदिर। अनुवाद में हमने यही अर्थ किया है। इस शब्द के द्वारा सन्देहास्पद स्थान का ग्रहण इष्ट है । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३६ । दः ४. वही, पृ. ३७ : समरं नाम जत्थ हेट्ठा लोहयारा कम्मं करेंति । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५७: समरेषु खरकुटीषु उपलक्षणत्वादस्यान्येष्वपि नीचास्पेदेषु.. अथवा सममरिभिर्वर्तन्त इति समराः । ६. सुखबोधा, पत्र १० : समरेषु खरकुटीषु । ७. Sanskrit-English Dictionary, 1170 Samara coming together, meeting, concourse, confluence.. (क) पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. १०६५। (ख) अंगविज्जा भूमिका, पृ. ६३: समरस्मरगृह या कामदेवगृह । अगारं नाम सुण्णागारं । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ३७ गृहेषु । संधाणं संधि, बहूण वा घराणं तिन्ह ६. : १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ७० अगारेषु ११. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३७ Jain Education International अगारेसु— चूर्णिकार ने इसका अर्थ शून्यागार और शान्त्याचार्य ने केवल गृह किया है। संधीसु—घरों के बीच की संधि दो दीवारों के बीच का प्रच्छन्न स्थान।" ४६. (सीएण फरुसेण) सीएण प्रकरणवश चूर्णिकार ने 'शीत' का अर्थ 'स्वादु' (मधुर), शान्त्याचार्य ने 'उपचार सहित' और नेमिचन्द्र ने आह्लादक किया है। १२ फरुसेण वर्णिकार ने 'परुष' का अर्थ स्नेह वर्जित या निष्ठुर और बृहद् वृत्तिकार ने कर्कश किया है।" गच्छाचार की वृत्ति में सुई के तुल्य चुभने वाले वचन को खर, बाण तुल्य चुभने वाले वचन को परुष और भाले के समान चुभने वाले वचन को कर्कश कहा है। " ४७. द्वेष का हेतु (वेसं) वृत्तिकारों ने इसको द्वेष्य मानकर व्याख्या की है ।" देशीनाममाला में इस अर्थ में 'वेसक्खिज्ज' शब्द प्राप्त होता है। ४८. भयमुक्त (विगयभया) । 'विगयभय' का एक अर्थ है- भयमुक्त । इसका वैकल्पिक अर्थ होता है-भय- प्राप्त। मुनि के मन में एक भय समा जाता है वह सोचता है यदि में गुरु के कठोर अनुशासन का पालन नहीं करूंगा तो दूसरों में मेरा अपमान होगा। दूसरे मुनि मेरे बारे में क्या सोचेंगे—इस अवधारणा से वह गुरु के अनुशासन को हितकर मानता है। यह रचनात्मक भय है। यह अनेक बार मुनि के जीवन में रचनात्मक एवं गुणात्मक परिवर्तन का हेतु बनता है। घराणं यदंतरा । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५७ 'गृहसन्धिषु च' गृहद्वयान्तरालेषु च । १२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३७ शीतेन स्वादुना इत्यर्थः । (ख) बृहद्वृत्ति पत्र ५७ 'शीतेन' सोपचारवचसा । (ग) सुखबोधा, पत्र १० शीतेन-उपचाराच्छीतलेना ाह्लादकेनेत्यर्थः । १३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. ३७ परुषं-स्नेहवर्जितं यत्परोक्षं निष्ठुराभिधानम् । (ख) बृहद्वृत्ति पत्र ५७ : 'परुषेण' कर्कशेन । १४. गच्छाचार पत्र ५६ खराः शूचीतुल्याः परुषाः बाणतुल्याः । कर्कशाः , कुन्ततुल्याः । १५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३८ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५८ (ग) सुखबोधा, पत्र १० । १६. देशीनाममाला ७७६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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