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उत्तरज्झयणाणि
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गन्धहस्ती सेचनक एक घना जंगल वहां हाथियों का यूथ रहता था। यूथपति उस यूथ में नए उत्पन्न होने वाले सभी गज-कलभों को मार डालता था। एक बार गर्भिणी हथिनी ने सोचा, मेरे यदि बच्चा पैदा होगा तो यह यूथपति उसे मार डालेगा। अच्छा है, मैं यहां से छिटक जाऊं। एक बार अवसर देख कर वह वहां से निकल कर पास के ऋषि आश्रम में चली गई। ऋषिकुमारों ने उसे आश्रय दिया। उसने कलभ का प्रस्रव किया । वह उन ऋषिकुमारों के साथ वाटिका का सिंचन करने लगा। उन्होंने उसका नाम 'सचेनक' रखा। वह बड़ा हुआ । यूथपति को देखकर उस पर झपटा। उसे मारकर स्वयं उस यूथ का स्वामी बन गया। एक बार उसने कुछ सोचा और जिस आश्रम में वह जन्मा, बड़ा हुआ, उसी को विनष्ट कर डाला। ऋषिकुमार जान बचाकर राजा श्रेणिक के पास गए और सेचनक गन्धहस्ती की बात कही। राजा स्वयं उसे पकड़ने गया। वह गन्धहस्ती एक देवता द्वारा परिगृहीत था । उसने हाथी से कहा—'वत्स! तुम स्वयं अपना निग्रह करो। दूसरों के द्वारा बंधन और वध आदि से निगृहीत होना अच्छा नहीं है।' यह सुनकर हाथी आश्वस्त हुआ और स्वयं ही आलान स्तम्भ पर आकर खड़ा हो गया ।
३१. (श्लोक १७)
शिष्य गुरु के प्रतिकूल आचरण न करे। न वह वाणी से यह कहे—तुम कुछ नहीं जानते अथवा गुरु के समक्ष या परोक्ष में वाणी से उनके विरुद्ध न बोले। तथा कर्म से अर्थात् क्रिया से वह आचार्य और उपाध्याय के शय्या - संस्तारक पर न बैठे, हाथ-पैर से उनका संघटन न करे तथा आते-जाते उन पर पैर रखकर न चले—यह चूर्णिगत व्याख्या है।' वृत्तिकार की व्याख्या कुछ भिन्न है ।
३२. आचायों के (किच्चाण)
कृति का अर्थ है – वन्दना । जो वन्दना के योग्य होते हैं, उन्हें कृत्य - आचार्य कहा जाता है। ३३. प्रस्तुत श्लोक (१८) में आचार्य के समक्ष शिष्य को किस प्रकार नहीं बैठना चाहिए, का निर्देश करते हुए सूत्रकार चार बातों का उल्लेख करते हैंवृत्तिकार ने उनके कारणों का निर्देश इस प्रकार किया है
१८ अध्ययन १ : श्लोक १७-१६ टि० ३१-३५
(२) शिष्य को गुरु के निकट आगे भी नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि गुरु- वंदना के लिए आने वाले लोगों को गुरु के मुखारबिन्द का दर्शन न होने पर उनके मन में अप्रीति उत्पन्न हो सकती है।
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(१) शिष्य गुरु के दाएं-बाएं न बैठे, क्योंकि को गुरु इधर-उधर देखने में गले और कंधे में पीड़ा हो सकती है।
9. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ३४ ।
२. बृहद्वृत्ति पत्र ५४ : कृतिः - वन्दनकं तदर्हन्ति कृत्याः 'दण्डादित्वाद् यप्रत्ययः' ते चार्थादाचार्यादयः ।
३. वही, पत्र ५४ ।
४. वही, पत्र ५४ 'पर्यस्तिका' जानुजङ्घोपरिवस्त्रवेष्टनाऽऽत्मिकाम् ।
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(३) शिष्य गुरु के पीछे भी न बैठे, क्योंकि दोनों को, गुरु और शिष्य को एक-दूसरे का मुंह न दीखने के कारण वह रसवत्ता पैदा नहीं होती जो रसवत्ता मुखदर्शन से होती है।
(४) शिष्य गुरु से सटकर न बैठे, क्योंकि पूज्य व्यक्तियों के अंग के संघटन से आशातना होती है और वह अविनय का प्रतीक है।
३४. (पल्हत्थियं....... पक्खपिण्ड )
पल्हत्थियं घुटनों और जंघाओं के चारों और वस्त्र बांधकर बैठने को पर्यस्तिका कहा जाता है।*
कुषाणकालीन मूर्तियों में, जो मथुरा से प्राप्त हुई हैं, यक्षकुवेर या साधु आदि अपनी टांग या पेट के चारों ओर वस्त्र बांधकर बैठे हुए दिखाए गए हैं। उसे उस समय की भाषा में 'पल्हत्थिया' (पलथी) कहते थे। वह दो प्रकार की होती थीसमग्र पल्हत्थिया या पूरी पलथी और अर्ध पल्हत्थिया या आधी पलथी ।
आधी पलथी दक्षिण और वाम अर्थात् दाहिना पैर या बांया पैर मोड़ने से दो प्रकार की होती थी। पलथी लगाने के लिए साटक, बाहुपट्ट, चर्मपट्ट, सूत्र, रज्जु आदि से बन्धन बांधा जाता था । ये पल्हत्थिका-पट्ट रंगीन, चित्रित अथवा सुवर्ण-रत्नमणिमुक्ता खचित भी बनाए जाते थे । *
पक्खपिण्डं दोनों हाथों से घुटनों और साथल को वेष्टित कर बैठना, पक्ष- पिण्ड कहलाता है।" ३५. बुलाए जाने पर ( वाहिन्तो)
चूर्णि और दोनों वृत्तियों में 'वाहिन्तो' पाठ है। उसका संस्कृत रूप 'व्याकृत' है । उत्तरवर्ती प्रतियों में यह पाठ 'वाहित्तो' के रूप में प्राप्त है। इसी आधार पर पिशेल ने इसका संस्कृत रूप 'व्याक्षिप्त' दिया है। परन्तु 'व्याक्षिप्त' का प्राकृत रूप 'वक्खित्त' होता है। अतः शब्द और अर्थ की दृष्टि से यह उचित नहीं है ।
इस शब्द के संदर्भ में नेमिचन्द्र ने कहा है कि गुरु के द्वारा बुलाए जाने पर शिष्य अपने आपको धन्य माने । उन्होंने एक प्राचीन पद्य उद्धृत किया है
'धन्नाण चैव गुरुणो, आदेसं देति गुणमहोयहिणो । चंदणरसो अपुन्नाण निवडए नेय अंगग्मि ।। - गुणों के सागर आचार्य योग्य शिष्य को ही आदेश देते
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अंगविज्जा भूमिका, पृ. ५६ ।
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३५ : पक्खपिंडो दोहिंवि बाहाहिं उरूगजाणूणि घेत्तूण अच्छा ।
पिशेल २८६ ।
सुखबोधा, पत्र ६ ।
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