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________________ विनयश्रुत १७ अध्ययन १ : श्लोक १४-१६ टि० २६-३० वशीभूत होकर दंडे से शिष्य पर प्रहार किया, सिर फूट गया, पहला भूतवादी बोला-मेरा भूत अत्यंत सुन्दर रूप पर शिष्य ने उस पीड़ा को समभाव से सहा। उसने सोचा, मैं बनाकर नगर की गलियों में क्रीड़ा करेगा। यदि कोई उसको कितना अधम हूं कि अपने शिष्यों के साथ सुखपूर्वक रहने वाले देखेगा, वह रुष्ट होकर उसको मार डालेगा। जो उसको देखकर आचार्य को मैंने इस विपत्ति में डाला। वह पवित्र अध्यवसायों नमन करेगा, वह रोग-मुक्त हो जाएगा। राजा ने कहा ऐसा की श्रेणी में आगे बढ़ा और केवली हो गया। भूत नहीं चाहिए। रात बीती। आचार्य ने रुधिर से अवलिप्त शिष्य के शरीर दूसरे भूतवादी ने कहा-राजन्! मेरा भूत अत्यन्त को देखा। मन ही मन अपने कृत्य के प्रति ग्लानि हुई। शुभ विकराल रूप बनाकर सड़क पर नाचेगा। यदि कोई उसका अध्यवसायों के आलोक में स्वयं के कत्य की निन्दा की और वे उपहास करेगा तो वह उसका सिर फोड़ डालेगा। जो उसकी भी केवली हो गए। प्रशंसा कर पूजा करेगा, वह रोगमुक्त हो जाएगा। राजा बोलाशिष्य ने अपने मृदु व्यवहार से शीघ्र कुपित होने वाले ऐसा भूत भी खतरनाक होता है। अपने गुरु को भी मृदु बना दिया।' तीसरे भूतवादी ने कहा-राजन्! मेरा भूत सीधा-साथा २६. (नापुट्ठो वागरे किंचि) है। उसकी कोई पूजा करे या उपहास करे, वह सबको रोगमुक्त इसके दो अर्थ हैं कर देता है। राजा ने कहा—'ऐसा भूत ही हमें चाहिए।' उस भूत (१) गुरु जब तक 'यह कैसे?' ऐसा न पूछे तब तक शिष्य ने सारी विपत्ति नष्ट कर दी, सारे नगर को रोगमुक्त कर डाला। ने कुछ भी न बोले, मौन रहे। जो व्यक्ति प्रिय और अप्रिय हो सहता है, वही सबके (२) गुरु ही नहीं, किसी के बिना पूछे कभी कछ न कहे। लिए ग्राह्य होता है। २७. (कोहं असच्चं कुव्वेज्जा) २९. दमन करना चाहिए (दमेयव्वो) दो भाई अपनी मां के साथ रह रहे थे। एक भाई को दमन का अर्थ है-पांचों इन्द्रियों तथा मन को उसके शत्रु ने मार डाला। मां ने अपने बेटे से कहा-बेटे! तेरे उपशांत करना। विषय दो प्रकार के होते हैं—मनोज्ञ और भाई की हत्या करने वाले को पकड़ और उसको मार डाल । बेटे अमनोज्ञ। मनोज्ञ विषयों के प्रति राग या आसक्ति और का पौरुष जाग उठा। वह उस घातक की टोह में चल पड़ा। अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष या घृणा उत्पन्न होती है। इस वृत्ति बारह वर्षों के पश्चात् वह मिला। उसका निग्रह कर वह उसे मांग पर विवेक के जागरण का अंकुश लगाना दमन है।" के समक्ष ला खड़ा किया। उसने कहा-मां! मैं शरणागत हूं। 'दमु' और 'शमु'-ये दोनों थातुएं एकार्थक हैं। प्रयोग की आप चाहें तो मारें या उबारें। मां का मन करुणा से भर गया। दृष्टि से 'दमन' का प्रयोग निग्रह करने के अर्थ में और 'शमन' बेटे ने कहा-मां! इस भ्रातृघातक को देख कर मेरा रोम-रोम का प्रयोग शांत करने के रूप में होता है। अध्यात्म के क्षेत्र में कुपित हो रहा है। कैसे सफल करूं अपने क्रोध को? मां इन्द्रिय और मन का निग्रह करना दमन कहलाता है। प्रस्तुत बोली-बेटे! क्रोध को पीना सीखो। सर्वत्र उसको सफल मत श्लोक में आत्मा का अर्थ इन्द्रिय और मन है। आत्म-दमन का करो। याद रखो अर्थ होगा-इन्द्रिय और मन का निग्रह। जैसे वल्गा को 'सरणागयाण वस्संभियाण पणयाण वसणापत्ताणं। खींचकर अश्व को नियंत्रित किया जाता है वैसे ही इन्द्रिय और रोगियअजंगमाणं, सप्पुरिसा नेव पहरंति।।' मन के अश्व को नियंत्रण में रखना आत्म-दमन है। शरण में आए हुए, विप्रब्ध, प्रणत और विपत्ति में पड़े हुए दंडनीति में जो दमन का अर्थ है, वह यहां नहीं है। तथा व्याधि से पंगु बने हुए लोगों पर कभी प्रहार मत करो। बेटे विधि-संहिता के अनुसार अपराधी का अभियोग और बलपूर्वक का क्रोध शांत हुआ। उसने अपने भ्रातृघातक को मुक्त कर दमन किया जाता है। अध्यात्म-संहिता के अनुसार एक व्यक्ति डाला। अपनी पूरी स्वतंत्रता के साथ अहिंसक विधि के द्वारा अपने २८. (धारेज्जा पियमप्पियं) इन्द्रिय और मन की चंचल प्रवृत्ति का नियंत्रण करता है। यही आत्म-दमन है। एक बार पूरा नगर भयंकर रोग से आक्रान्त हो गया। इस प्रकार एक ही शब्द दो संदर्भो में भिन्न अर्थवाला बन राजा और पीरजन अत्यन्त दुखी हो गए। वहां तीन भूतवादी जाता है। आए और बोले---राजन्! हमारे पास शक्तिशाली भूत हैं। हम ३०. 'वरं मे अप्पा दंतो' के प्रसंग में वृत्तिकार ने निम्न सारे नगर का उपद्रव शान्त कर देंगे। राजा ने तीनों से कहाअपने-अपने भूतों का परिचय दो। कथा प्रस्तुत की है १. सुखबोधा पत्र, ४,५ २. वही, पत्र ५ ३. सुखबोधा, पत्र ५,६ ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२ : दमयेत् इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन मनोज्ञेतरविषयेषु रागद्वेषवशतो दुष्टगजमिवोन्मार्गगामिनं स्वयं विवेकांकुशेनोपशमनं नयेत्। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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