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________________ कर्मप्रकृति ५७३ अध्ययन ३३ : श्लोक ६-१७ ६. सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तमेव य। एयाओ तिन्नि पयडीओ मोहणिज्जस्स दंसणे।। सम्यक्त्वं चैव मिथ्यात्वं सम्यमिथ्यात्वमेव च। एतास्तिनः प्रकृतयः मोहनीयस्य दर्शने।। (१) सम्यक्त्व, (२) मिथ्यात्व और (३) सम्यग्-मिथ्यात्व -दर्शन-मोहनीय की ये तीन प्रकृतियां हैं। चारित्र-मोहनीय दो प्रकार है-(१) कषाय-मोहनीय और (२) नोकषाय-मोहनीय। १०. चरित्तमोहणं कम्म दुविहं तु वियाहियं। कसायमोहणिज्जं तु नोकसायं तहेव य।। चरित्रमोहनं कर्म द्विविधं तु व्याख्यातम्। कषायमोहनीयं च नोकषायं तथैव च।। कषाय-मोहनीय कर्म के सोलह भेद होते हैं और नोकषाय-मोहनीय कर्म के सात या नौ भेद होते ११. सोलसविहभेएणं । कम्मं तु कासयजं। सत्तविहं नवविहं वा कम्मं नोकसायजं ।। षोडशविधभेदेन कर्म तु कषायजम्। सप्तविधं नवविधं वा कर्म च नोकषायजम्।। १२. नेरइयतिरिक्खाउ मणुस्साउ तहेव य। देवाउयं चउत्थं तु आउकम्मं चउविहं।। नैरयिकतिर्यगायुः मनुष्यायुस्तथैव च। देवायुश्चतुर्थं तु आयुःकर्म चतुर्विधम् ।। आयु-कर्म चार प्रकार का है—(१) नैरयिक-आयु, (२) तिर्यग्-आयु, (३) मनुष्य-आयु और (४) देव-आयु। नाम-कर्म दो प्रकार का है—(१) शुभ-नाम और (२) अशुभनाम। इन दोनों के अनेक प्रकार हैं। गोत्र-कर्म के दो प्रकार हैं-(१) उच्च गोत्र और (२) नीच गोत्र । इन दोनों के आठ-आठ प्रकार हैं।" १३. नाम कम्मं तु दुविहं सुहमसुहं च आहियं। सुहस्स उ बहू भेया एमेव असुहस्स वि।। १४. गोयं कम्मं दुविहं उच्चं नीयं च आहियं । उच्चं अट्ठविहं होइ एवं नीयं पि आहियं ।। १५. दाणे लाभे य भोगे य उवभोगे वीरिए तहा। पंचविहमंतरायं समासेण वियाहियं ।। १६. एयाओ मूलपयडीओ उत्तराओ य आहिया। पएसग्गं खेत्तकाले य भावं चादुत्तरं सुण।। नाम कर्म द्विविधं शुभमशुभं चाख्यातम्। शुभस्य बहवो भेदाः एवमेव अशुभस्यापि। गोत्रं कर्म द्विविधं उच्च नीचं चाख्यातम्। उच्चमष्टविधं भवति एवं नीचमप्याख्यातम् ।। दाने लाभे च भोगे च उपभोगे वीर्ये तथा। पंचविधोन्तरायः समासेन व्याख्यातः ।। अन्तराय-कर्म संक्षेप में पांच प्रकार का है(१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय।' एता मूलप्रकृतयः उत्तराश्चाख्याताः। प्रदेशाग्रं क्षेत्रकालौ च भावं चोत्तरं शृणु। कर्मों की ये ज्ञानावरण आदि आठ मूल प्रकृतियां और श्रुत-ज्ञानावरण आदि सत्तावन उत्तर प्रकृतियां कही गई हैं। इसके आगे तू उनके प्रदेशाग्र (परमाणुओं के परिमाण) क्षेत्र काल और भाव (अनुभाग-पर्याय) को सुन। १७. सव्वेसिं चेव कम्माणं पएसग्गमणंतर्ग। गंठियसत्ताईयं अंतो सिद्धाण आहियं ।। सर्वेषां चैव कर्मणां प्रदेशाग्रमनन्तकम्। ग्रन्थिकसत्त्वातीतम् अन्तः सिद्धानामाख्यातम्।। एक समय में ग्राह्य सब कर्मों का प्रदेशाग्र अनन्त है। वह अभव्य जीवों से अनन्त गुना अधिक और सिद्ध आत्मओं के अनन्तवें भाग जितना होता है। For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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