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________________ उत्तरायणाणि ५७४ अध्ययन ३३ : श्लोक १८-२५ १. सबजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं। सव्वेसु वि पएसेसु सब् सव्वेण बद्धगं ।। सर्वजीवानां कर्म तु संग्रहे षड्दिशागतम्। सर्वेष्वपि प्रदेशेषु सर्वसर्वेण बद्धकम् ।। सब जीवों के संग्रह-योग्य पुद्गल छहों दिशाओं -- आत्मा से संलग्न सभी आकाश प्रदेशों में स्थित हैं। वे सब कर्म-परमाणु बन्ध-काल में एक आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ सम्बद्ध होते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटि-कोटि सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। १६. उदहीसरिनामाणं तीसई कोडिकोडिओ। उक्कोसिया ठिई होइ अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। २०. आवरणिज्जाण दुण्हं पि वेयणिज्जे तहेव य। अंतराए य कम्मम्मि ठिई एसा विहाहिया।। उदधिसदृग्नाम्नां त्रिंशत् कोटिकोट्यः। उत्कृष्टा स्थितिर्भवति अन्तर्मुहूर्त जघन्यिका।। आवरणयोर्द्वयोरपि वेदनीये तथैव च। अन्तराये च कर्मणि स्थितिरेषा व्याख्याता।। मोहनीय-कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटि-कोटि सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। २५. उदहीसरिनामाणं सत्तर कोडिकोडिओ। मोहणिज्जस्स उक्कोसा अंतोमुहूत्तं जहन्निया।। उदधिसदृग्नाम्नां सप्ततिः कोटिकोट्यः। मोहनीयस्योत्कृष्टा अन्तर्मुहूर्त जघन्यिका।। आयु-कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। २२. तेत्तीस सागरोवमा उक्कोसेण वियाहिया। ठिई उ आउकम्मस्स अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमा उत्कर्षेण व्याख्याता। स्थितिस्त्वायुःकर्मणः अन्तर्मुहूर्त जघन्यिका।। २३. उदहीसरिनामाणं वीसई कोडिकोडिओ। नामगोत्ताणं उक्कोसा अट्ठ मुहुत्ता जहन्निया।। उदधिसदृग्नाम्नां विंशतिः कोटिकोट्यः। नामगोत्रयोरुत्कृष्टा अष्ट मुहूर्ता जघन्यिका ।। नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटि-कोटि सागर और जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की होती है। २४. सिद्धाणणंतभागो य अणुभागा हवंति उ। सव्वेसु वि पएसग्गं सव्वजीवेसुइच्छियं ।। सिद्धानामनन्तभागश्च अनुभागा भवन्ति तु। सर्वेष्वपि प्रदेशाग्रं सर्वजीवेभ्योऽतिक्रान्तम् ।। कर्मों के अनुभाग सिद्ध आत्माओं के अनन्तवें भाग जितने होते हैं। सव अनुभागों का प्रदेश-परिमाणरसविभाग का परिमाण सब जीवों से अधिक होता इन कर्मों के अनुभागों को जानकर बुद्धिमान् इनका निरोध और क्षय करने का यत्न करे। २५. तम्हा एएसि कम्माणं अणुभागे वियाणिया। एएसिं संवरे चेव खवणे य जए बुहे।। तस्मादेतेषां कर्मणाम् अनुभागान् विज्ञाय। एतेषां सम्वरे चैव क्षपणे च यतेत बुधः।। त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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