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________________ उत्तरज्झयणाणि बौद्ध साहित्य में मानसिक, वाचिक और कायिक अनाचार को दुःशील माना है।' ११. वाचाल भिक्षु (मुहरी) अविनीत व्यक्ति वाचाल होता है। वाचालता से व्यक्ति की लघुता सामने आती है। नीति का प्रसिद्ध श्लोक हैमौखर्यं लाघवकरं, मौनमुन्नतिकारकम् । मुखरौ नूपुरो पादे, हारः कण्ठे विराजते ।। वृतिकार ने 'मुहरी' शब्द के तीन संस्कृत रूप देकर तीन भिन्न-भिन्न अर्थ किए हैं— १४ अध्ययन १ : श्लोक ५-७ टि० ११-१७ आचार या संयम 'शील' शब्द से अभिहित होता है। प्रस्तुत प्रसंग में यह शब्द 'विनीत' शिष्य के आचार की ओर इंगित करता है । सूत्रकार के अनुसार विनीत के शील का स्वरूप यह है १. मुखारि -- जिसका मुंह ही अरि-शत्रु है अथवा जिसका मुंह (वचन) इहलोक और परलोक का अपकार करने वाला है। २. मुधारि—असंबद्ध भाषा बोलने वाला । ३. मुखर वाचाल । १२. चावलों की भूसी को (कणकुण्डगं ) चूर्णि और टीका में इसके दो अर्थ किए गए हैं-पावलो की भूसी अथवा चावलमिश्रित भूसी । चूर्णिकार ने इसे पुष्टिकारक तथा सूअर का प्रिय भोजन कहा है। श्रावक धर्म विधि प्रकरण में एक कथा आई है, जिसका आशय है कि एक राजा को खाने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई । उसने विविध प्रकार के भोजन बनवाए। वह सब कुछ खा गया। यहां तक कि 'कण-कुण्डग', मंडक आदि भी खा गया। इस कथानक से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि 'कण-कुण्डग' चावलों का कुण्डा नहीं पर कोई खाद्य विशेष था । * कौटिल्य अर्थशास्त्र में कण-कुण्डक शब्द कई स्थानों में आया है (२।१५।५२,५६ २ / २६/४३) । यहां कुण्डक का अर्थ- 'लाल चूर्ण जो कि छिलके के अन्दर चावल से चिपटा रहता है'-- किया है।' जातक में 'आचामकुण्डक' शब्द आया है। वहां आचाम का अर्थ 'चावल का मांड' है। आयाम का अर्थ 'चावल से बना हुआ यूष' भी है। " १३. अज्ञानी (मिए) मृग शब्द के दो अर्थ हैं— हरिण और पशु । प्रस्तुत प्रसंग में पशु की लाक्षणिक विवक्षा से इसका अर्थ है-अज्ञानी या विवेकहीन व्यक्ति । वृत्तिकार ने अविनीत अर्थ ग्रहण किया है। १४. शील को (सीलं) ४. ५. शील का अर्थ है- -आचार अथवा संयम । मुनि का सम्पूर्ण १. विसुद्धिमग्ग, भाग १, पृष्ठ ५५ : सब्बम्पि दुस्सील्यं अनाचारी । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५ ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २७ कणा नाम तंडुला कुंडगा कुक्कसाः; कणानां कुंडगाः, कणकुंडगाः, कणमिस्सो वा कुंडकः कणकुंडक, सो य वुड्ढकरो, सूयराणं प्रियश्च । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४५ कणाः तन्दुलास्तेषां तमिश्रो वा कुण्डकःतत्क्षोदनोत्पन्नकुक्कुसः कणकुण्डकस्तम् । श्रावक-धर्मविधि प्रकरण, पत्र २४, २५ । The red powder which adheres to the rice under the husk. (Childers) Jain Education International १. गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करना । २. गुरु के उपपात में बैठना, गुरु की शुश्रूषा करना । ३. गुरु के इंगित और आकार को जानना । ४. गुरु के अनुकूल वर्तन करना । ५. वाचालता का वर्जन करना, अल्पभाषी होना । बौद्ध साहित्य में शील, समाधि और प्रज्ञा-ये तीन शब्द बहुत प्रयुक्त हैं। शील का एक अर्थ है-कथनी और करनी की समानता । इसका दूसरा अर्थ है- आचार - मन, वचन और काया की सम्यक् प्रवृत्ति । १५. आत्मा का हित (डियमप्पणी) आत्मा का ऐहिक और पारलौकिक हित विनय की आराधना से संभव है। आचार्य नेमिचंद्र ने इसकी पुष्टि में एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है" 'विणया णाणं णाणाओ दंसणं दंसणाओ चरणं च । चरणाहिंतो मोक्खो, मोक्खे सोक्खं निराबाहं ।' विनय की आराधना से ज्ञान, ज्ञान से दर्शन, दर्शन से चारित्र और चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष में निराबाध सुख उपलब्ध होता है । १६. अभाव ( हीनभाव) को सुनकर (सुणियाऽभावं ) इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं- 'श्रुत्वा अभाव' तथा 'श्रुत्वा भावं'। अकार को 'सुणिया' से युक्त मानने पर संस्कृत रूप 'श्रुत्वा अभावं' बनता है, अन्यथा 'श्रुत्वा भावं' । भाव का अर्थ है— अवस्था या स्थिति । १७. बुद्धपुत्र (आचार्य का प्रिय शिष्य ) और मोक्ष का अर्थी ( बुद्धपुत्त नियागट्ठी) आचार्य नेमिचंद्र के अनुसार 'बुद्धपुत्त' का अर्थ है--- आचार्य आदि का प्रीतिपात्र शिष्य और 'नियागट्ठी' का अर्थ है— मोक्षाभिलाषी ।१२ चूर्णि और बृहद्वृत्ति में 'बुखउत्त' पाठ है 'बुद्धउत्त' और 'नियागट्ठी' इन दोनों शब्दों को एक मानकर इसका संस्कृत रूप – 'बुद्धोक्तनिजकार्थी' - तीर्थंकर आदि द्वारा उपदिष्ट ज्ञान ६. ७. ८. ६. Jatak 254, gg/1-2: Acama is scum of boiling rice. āyama, "A thin rice porridge" (Leumann Aupapatik S. S. Z.). बृहद्वृत्ति, पत्र ४५ मृग इव मृगः अज्ञत्वादविनीत इति प्रक्रमः । विसुद्धिमग्ग, भाग १, पृ. १३ सीलं ति सम्मावाचाकम्मन्ता । १०. वही, पृ. १५ सीले ति कुसलसीले । ११. सुखबोधा, पत्र ३ । १२. वही, पत्र ३, बुद्धानाम् आचार्यादीनां पुत्र इव पुत्रो बुद्धपुत्रः - 'पुत्ता य सीसा या समं विभत्ता' इतिवचनात् स्वरूपविशेषणमेतत्, नियागार्थी मोक्षार्थी........ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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