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________________ विनयश्रुत १३ अध्ययन १ : श्लोक ४ टि०६, १० प्रत्यनीकता को समझाने के लिए 'कूलवालक श्रमण' की कथा दी है। वह इस प्रकार है- कर कोणिक ने मुनिसुव्रत के स्तूप को ध्वस्त कर दिया और वैशाली नगरी पर अधिकार पा लिया।" एक आचार्य थे। उनका शिष्य अत्यंत अविनीत था । आचार्य यदाकदा उसे उपालम्भ देते और वह आचार्य पर द्वेषभाव रखता था। एक बार आचार्य उसको साथ ले सिद्धशेन की वंदना करने गए। वे वन्दन कर पर्वत से नीचे उतर रहे थे। आचार्य आगे थे। शिष्य पीछे-पीछे आ रहा था। उसके मन में द्वेष उभरा और उसने आचार्य को मारने के लिए एक शिलाखंड को नीचे लुढ़काया। आचार्य ने देखा। उन्होंने पैर पसार लिए । शिलाखंड पैरों के बीच से नीचे चला गया। अन्यथा वे मर जाते। शिष्य की इस जघन्यता से कुपित होकर उन्होंने शाप दिया- 'दुष्ट ! तेरा विनाश स्त्री के कारण होगा।' शिष्य ने सुना, आचार्य का वचन मिथ्या हो, इस दृष्टि से वह तापसों के एक आश्रम में रहने लगा। पास में एक नदी थी। वह नदी के चर में आतापना लेने लगा। जब कोई सार्थवाह उधर से निकलता तब उसे आहार उपलब्ध होता था। नदी के कूल पर आतापना लेने के प्रभाव से नदी ने अपना प्रवाह बदल दिया। उसका नाम हो गया - कूलवालय अर्थात् कूल को मोड़ देने वाला । महाराज श्रेणिक का पुत्र कोणिक वैशाली नगरी को अपने अधीन करना चहता था। पर वह वैसा कर नहीं सका, क्योंकि वहां मुनिसुव्रत स्वामी का स्तूप था । कोणिक हताश हो गया। एक बार देववाणी हुई- 'यदि श्रमण कूलवालक गणिका के वशवर्ती हो जाएं तो वैशाली नगरी को अधीनस्थ किया जा सकता है।' कोणिक ने गणिकाओं को बुलाया। एक गणिका ने इस कार्य को संपन्न करने की स्वीकृति दी। उसने कपट-श्राविका का रूप बनाया। सार्थ के साथ वह कूलवालक के पास गई और वन्दना कर बोली- 'मेरा पति दिवंगत हो गया है । मैं तीर्थाटन करने निकली हूं। आपकी बात सुनी और मैं यहां आ गई। आप कृपा कर मेरे हाथ से दान लें।' उस दिन श्रमण के पारणक था । श्राविका ने औषधिमिश्रित मोदक दिए । श्रमण को अतिसार हो गया। औषधि के प्रयोग से श्रमण स्वस्थ हुआ। अनुराग बढ़ा। श्राविका प्रतिदिन मुनि का उद्वर्तन करती। मुनि का मन विचलित हो गया। वह श्रमण को ले कोणिक के पास आई। उससे सारी जानकारी प्राप्त 9. सुखबोधा, पत्र २ । २. बृहद्वृत्ति पत्र ४५ पूतिः परिपाकतः कुधितगन्धी कृमिकुलाकुलत्वाद् उपलक्षणमेतत्, तथाविधौ कर्णी श्रुती यस्याः, पक्वरक्तं वा पूतिस्तद्व्याप्तौ कणीं यस्याः सा पूतिकर्णा, सकलावयवकुत्सोपलक्षणं चैतत् । ३. विनीत अविनीत की चौपई, ढाल २ ।१ । ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २७ अथ शुनीग्रहणं शुनी गर्हिततरा, न तथा श्वा । (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ४५ स्त्रीनिर्दशो ऽत्यन्तकुत्सोपदर्शकः । Jain Education International ९. ( जहा सुणी पूइकण्णी निक्कसिज्जइ सव्वसो) 'पूर्ति' शब्द के दो अर्थ है– (१) कामों में जब कृमि उत्पन्न हो जाते हैं तब उनसे दुर्गन्ध फूटने लगती है। (२) जब कानों में पीब पड़ जाती है तब भयंकर दुर्गन्ध आने लगती है। तात्पर्य में इसका अर्थ होगा-वह कुतिया जिसके शरीर के सारे अवयव सड़ गल गए हों। -- ऐसी कृतिया सभी स्थानों से निकाल दी जाती है। इसी प्रकार अविनीत सर्वत्र तिरस्कार का पात्र होता है। उसे कहीं भी सम्मान नहीं मिलता। आचार्य भिक्षु ने इसी श्लोक के मंतव्य को सरल अभिव्यक्ति दी है. कुया काना री कूतरी, तिणरे झरे कीड़ा राध लोही रे । सगले ठाम स्यूं काढे हुड हुड् करे, घर में आवण न दे कोई रे ।। धिग धिग अविनीत आतमा ।। चूणिकार और वृत्तिकार के अनुसार 'शुनी' शब्द का प्रयोग अत्यंत गर्हा एवं कुत्सा को व्यक्त करने के लिए किया गया है ।" सुश्रुत में 'पूतिकर्ण' को कान का रोग माना है, जिसमें पीब बहती है। 'सव्वसो' शब्द के तीन अर्थ प्राप्त हैं १. सभी स्थानों से ।" २. सभी प्रकार से । ३. सभी अवस्थाओं में। १०. दुःशील (दुस्सील) शील के तीन अर्थ हैं— स्वभाव, समाधि और आचार । जिसका शील राग-द्वेष तथा अन्यान्य दोषों से विकृत होता है वह दुःशील कहलाता है। आचार या चारित्र विनय के पर्यायवाची हैं। वे परस्पर जुड़े हुए हैं। विनय शील का ही एक अंग है। विनय की फलश्रुति है — चारित्र । जो अविनीत होता है, वह दुःशील होता है। दुःशील व्यक्ति विनाश को प्राप्त होता है। प्राचीन श्लोक है वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्, वित्तमायाति पाति च। अक्षीणो वित्ततः क्षीणो, वृत्ततस्तु हतो हतः ।। ५. सुश्रुत १२६० | १४ | ६. बृहद्वृत्ति पत्र ४५ सव्वसो त्ति सर्वतः सर्वेभ्यो गोपुरगृहांगणादिभ्यः । ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. २७ सव्वसो सव्वपागारं । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४५ । ८. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. २७ सव्वसोत्ति सर्वावस्थासु वा । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र पृ. ४५ दुष्टमिति रागद्वेषादिदोषविकृतं शीलं स्वभावः समाधिराचारो वा यस्यासी दुःशीलः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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