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विनयश्रुत
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का अभिलाषी किया गया है।' बृहद्वृत्ति में 'नियाग' का वैकल्पिक अर्थ मोक्ष किया है।"
बृहद्वृत्ति में ये दो पाठान्तर माने गए हैं१. 'बुद्धबुत' बुद्धव्युक्त अर्थात् आगम
२. 'बुद्धपुत्त' बुद्धपुत्र अर्थात् आचार्य आदि का प्रीतिपात्र शिष्य ।
चूर्णिकार ने इस अध्ययन के बीसवें श्लोक में भी 'नियागट्ठी' का अर्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अर्थी किया है। *
आगम- साहित्य में 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर मिलता है। इसका अर्थ है- आचार्य, तीर्थंकर, वीतराग, ज्ञानी, गुरु आदि -आदि । बौद्ध साहित्य में इन अर्थों के साथ-साथ 'शाक्यपुत्र' के अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है। महात्मा शाक्य मुनि को जब बोधि-लाभ हुआ तब वे बुद्ध कहलाए और उनका दर्शन भी इसी नाम से अभिहित होने लगा । परन्तु महात्मा बुद्ध बोलते समय अपने लिए विशेषतः 'तथागत' शब्द का ही प्रयोग करते थे।
(१) जिसका अन्तःकरण क्रोधयुक्त न हो।
(२) जिसका बाह्याकार प्रशान्त हो ।
४.
२०. चण्डालोचित कर्म (क्रूर व्यवहार ) ( चण्डालियं)
चूर्णि में इसका मुख्य अर्थ क्रोध और अनृत किया है।" बृहद्वृत्ति में इसका मुख्य अर्थ क्रोध के वशीभूत हो अनृत भाषण करना और विकल्प में क्रूर कर्म किया है।* शान्त्याचार्य
१८. ( निसन्ते... अट्ठजुत्ताणि... निरट्ठाणि)
निसन्ते—चूर्णि और वृत्ति के आधार पर इसके तीन अर्थ दूसरे विकल्प में 'मा अचण्डालिय' में अचण्ड को शिष्य
फलित होते हैं
सम्बोधन मानकर 'अलीक' का अर्थ अनृत करते हैं।" नेमिचन्द्र ने केवल 'क्रोध के वशीभूत होकर अनृत भाषण करना' यही एक अर्थ माना है । किन्तु चण्ड और अलीक—इन दो शब्दों को भिन्न मानने की अपेक्षा चाण्डालिक को एक शब्द मानना अधि क उपयुक्त है।
२१. अकेला ध्यान करे (झाएज्ज एनगो)
(३) जिसकी चेष्टाएं अत्यंत शांत हों । अट्ठजुताणिइसके तीन अर्थ प्राप्त है
(१) आगम-वचन"
(२) मोक्ष के उपाय (३) अर्थ सहित
निरट्ठाणि—चूर्णिकार ने निरर्थक शब्द के तीन उदाहरण
१. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २८ बुद्धैरुक्तं बुद्धोक्तं ज्ञानमित्यर्थः तदेव च नियाकं निजकमात्मीयं शेषं शरीरादि सर्व पराक्यं ।
(ख) बृहद्वृत्ति पत्र ४६ : बुद्धैः - अवगततत्त्वैस्तीर्थकरादिभिरुक्तम्अभिहितं तच्च तन्निजमेव निजकं च- - ज्ञानादि तस्यैव बुद्धैरात्मीयत्वेन तत्त्वत उक्तत्वात् बुद्धोक्तनिजक, तदर्थयते अभिलषतीत्येवंशीलः वुद्धोक्तनिजकार्थी ।
२. बृहद्वृत्ति पत्र ४६ यद्वा नितरां यजनं याग:नियागो मोक्षः ।
-पूजा यस्मिन् सोऽयं
३. वही, पत्र ४६ : पठन्ति च - - 'बुद्धवुत्ते नियागट्ठि त्ति' बुद्धैःउक्तरूपैयुक्तो -- विशेषेणाभिहितः, स च द्वादशांगरूप आगमस्तस्तिन् स्थित इति गम्यते, यद्वा-बुद्धानाम् आचार्यादीनां पुत्र इव पुत्रो बुद्धपुत्रः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३५: नियागं णिदागं नियागमित्यर्थः णाणातितियं वाणियगं आत्मीयमित्यर्थः सेसं सरीरादि सव्वं परायगं णियाएणऽट्ठो जस्स सो गियागड्ढी ।
५. बुद्ध और बौद्ध साधक, पृ. १५ ।
६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. २८ : अहियं शान्तो निशान्तः अक्रोधवानित्यर्थः, अत्यन्तशान्तचेष्टो वा ।
(ख) सुखबोधा, पत्र ३ : निशान्त नितरामुपशमवान् अन्तः क्रोधपरिहारेण बहिश्च प्रशान्तकारतया ।
७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. २८ अर्थयुक्तानि सूत्राण्युपदेशपदानि । गम्यत इति अर्थः, स च
(ख) वृहद्वृत्ति पत्र, ४६, ४७: अर्थते
अध्ययन १ : श्लोक ८-१० टि० १८-२१
दिए हैं
(१) भारत, रामायण आदि । ये लोकोत्तर अर्थ से शून्य हैं । (२) दित्थ, दवित्थ, पाखंड आदि । ये अर्थ या निरुक्तशून्य शब्द हैं।
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(३) स्त्री - कथा आदि ।
ये मुनि के लिए अनर्थक या अप्रयोजनीय हैं।" १९. क्रीडा (कीडं)
इसका सामान्य अर्थ है—खेल-कूद, किलोल आदि । शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ — अन्त्याक्षरी, प्रहेलिका आदि से उत्पन्न कुतूहल किया है।" चूर्णिकार ने विकल्प में दोनों शब्दों (हासं कीडं) का समुच्चयार्थ 'कीड़ापूर्वक हास्य' किया है।
इस शब्द से एक लौकिक प्रतिपत्ति का संकेत मिलता है कि ध्यान अकेला करे, अध्ययन दो व्यक्ति करें और ग्रामान्तर-गमन
हेयउपादेयश्चोभयस्याप्यर्य्यमाणत्वात् तेन युक्तानि अन्वितानि अर्थयुक्तानि तानि च हेयोपादेयाभिधायकानि, अर्थादागमवचांसि । ८. बृहद्वृत्ति पत्र ४७ मुमुक्षुभिरर्थ्यमानत्वादर्थो - मोक्षस्तत्र युक्तानि - उपायतया संगतानि ।
६.
१०.
वही, पत्र ४७ अर्थ वा अभिधेयमाश्रित्य युक्तानि - यतिजनोचितानि । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २८ न येषामर्थो विद्यत इति निरत्याणि..... 'भारहरामायणादीणि' अथवा दित्थो दवित्थो पाखंड इति, अथवा इत्थिकहादीणि ।
११ (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४७ क्रीडां च अन्ताक्षरिकाप्रहेलिकादानादिजनिताम् । (ख) सुखबोधा, पत्र ३ ।
१२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २६ अहवा जं कीडपुव्वगं हास्य तद् ।
१३. वही, पृ. २६ : चंडो नाम क्रोधः, ऋतं सत्यं, न ऋतमनृतं, पागते तु तमेव अलियं, चंड च अलियं च चंडालियं ।
१४. बृहद्वृत्ति पत्र ४७ : चण्डः - क्रोधस्तद्वशादलीकम् - अनृतभाषणं चण्डालीकम् । यद्वा – चण्डेनाऽऽलमस्य चण्डेन वा कलितश्चण्डालः, स चातिक्रूरत्वाच्चण्डालजातिस्तस्मिन् भवं चाण्डालिकं कर्मेति गम्यते ।
१५. वही, पत्र ४७ अथवा अचण्ड ! सौम्य ! अलीकम् - अन्यथात्वविधानादिभिरसत्यं ।
१६. सुखबोधा पत्र ३ : चण्डः क्रोधस्तद्वशाद् अलीकम् - अनृतभाषणं चण्डालिकं, लोभाद्यलीकोपलक्षणमेतत् ।
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