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________________ उत्तरज्झयणाणि ७२ अध्ययन ३ : श्लोक २,३ टि० ५-७ अज्ञान अथवा गुरु का नियोग-नियोजन । वह नहीं जानता कि को समझाने के लिए वृत्तिकार ने एक प्राचीन गाथा उद्धृत की यह तत्त्व ऐसा ही है, पर गुरु के नियोग से वह उस पर श्रद्धा हैकर लेता है। णत्थि किर को पएसो लोए वालग्गकोडिमित्तोऽपि। प्रश्न होता है कि क्या सम्यग्दृष्टि व्यक्ति भी इतना ऋजु जम्मण मरणावाहा जत्थ जिएहि स संपत्ता।। होता है कि गुरु के कथन-मात्र से असदभाव के प्रति भी श्रद्धा केश के अग्रभाग जितना भाग भी लोक में ऐसा नहीं है कर लेता है? समाधान की भाषा में कहा गया–हां, ऐसा होता जहां इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो। है। जमालि आदि निन्हवों के शिष्य अपने-अपने गुरु के प्रति चूर्णि और वृत्ति में इसका वैकल्पिक अर्थ यह है—कर्म के पूर्ण भक्तिनत थे। वे स्वयं आगमों के रहस्यों के ज्ञाता थे। दारुण विपाक को नहीं जानने के कारण जो जीव विश्रम्भकिन्तु गुरु पर विश्वास कर वे विपरीत अर्थ में भी श्रद्धान्वित संभ्रांति को प्राप्त हो जाते हैं।' हो गए। ७. (श्लोक ३) वृत्तिकार ने यहां जमालि आदि सात निन्हवों की प्रस्तुत श्लोक में 'देवलोक' तथा 'असुरकाय'-ये दो शब्द संक्षिप्त कथावस्तु और उनके दार्शनिक पक्ष का उल्लेख किया आए हैं। असर भी देवताओं की एक जाति है। प्रश्न होता है कि फिर दो शब्दों का प्रयोग क्यों? इसका समाधान यह हैग्याहरवें श्लोक में इन चार दुर्लभ अंगों की प्राप्ति का देवलोक शब्द सौधर्म आदि वैमानिक देवों की और असुर शब्द परिणाम निर्दिष्ट है। अधोलोक के देवों की अवस्थिति का बोधक है। ५. विविध गोत्रवाली जातियों में (नानागोत्तासु नाइस) सुखबोधा वृत्ति में देवलोक, नरकलोक, असुरलोक और चूर्णि में नानागोत्र का अर्थ हीन, मध्य और उत्तम आदि व्यन्तरलोक में उत्पन्न होने योग्य कर्मों के बन्धन के कारणों की नाना प्रकार के गोत्र किया है। बृहद्वृत्तिकार ने इसका मुख्य . चर्चा चार श्लोकों में की है। वे कारण ये हैंअर्थ नाना नाम वाली जातियां और वैकल्पिक अर्थ हीन, मध्य देव-आयुष्य बन्धक -१. सराग तपःसंयम का पालन और उत्तम भेद प्रधान गोत्रों में किया है। करने वाला २. अणव्रतधर ३. दान्त ४. अज्ञान तप में चूर्णि के अनुसार जाति का अर्थ है—जन्म। शान्त्याचार्य आसक्त। ने इसका मुख्य अर्थ क्षत्रिय आदि जातियां और वैकल्पिक अर्थ नरक-आयुष्य का बन्धकर्ता-१. हिंसा में रत २. क्रूर जन्म किया है। ३. महान् आरम्भ और महान् परिग्रह में रत ४. मिथ्यादृष्टि ५. प्रस्तुत प्रसंग में जाति का अर्थ जन्म अधिक प्रासंगिक महान् पापी। असुर-आयुष्य का बन्धकर्ता-१. अज्ञान तप में प्रतिबद्ध २. प्रबल क्रोध करने वाला ३. तप का अहं करने वाला ४. वैर ६. समूचे विश्व का स्पर्श कर लेते हैं (विस्संमिया) में प्रतिबद्ध। “विस्सभिया' पद में बिन्दु अलाक्षणिक है। इसका संस्कृत व्यन्तर-आयुष्य का बन्धकर्ता-१. फांसी पर लटककर रूप है-विश्वभृतः और अर्थ है-बार-बार के जन्म-मरण से आत्महत्या करने वाला २. विषभक्षण करने वाला ३. अग्निदाह विश्व के कण-कण का स्पर्श करने वाले जीव। इसका संस्कृत में जल कर मरने वाला ४. जल में डूब मरने वाला ५. भूख रूप विश्रम्भित भी हो सकता है। 'विस्संभिया' शब्द के तात्पर्यार्थ और प्यास से क्लान्त होने वाला। १. (क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १६२, १६३ : मिच्छादिट्ठी जीवो उवइट्ठ पवयणं न सद्दहइ। सद्दहइ असब्भावं उवइट्ठ वा अणुवइ8।। सम्माद्दिट्ठी जीवो उवइट पवयणं तु सद्दहइ। सद्दहइ असब्भावं अणभोगा गुरुनिओगा वा ।। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १५१,१५२। २. बृहद्वृत्ति, पत्र १५२-१८१। ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ जननं जाति: नानागोत्रास्विति हीणमज्झिमउत्तमासु। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८१ : नाना इत्यनेकार्थः, गोत्रशब्दश्च नामपर्यायः, ततो नानागोत्रासु-अनेकाभिधानासु जायन्ते जन्तवे आस्विति जातयःक्षत्रियाद्याः तासु अथवा जननानि जातयः, ततो जातिषु क्षत्रियादिजन्मसु नाना हीनमध्यमोत्तमभेदेनानेक गोत्रं यासु तास्तथा तासु। ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ । (ख) बृहवृत्ति, पत्र १८१,१८२ : विस्संभिय ति बिन्दोरलाक्षणिकत्वाद् विश्व-जगत् विप्रति-पूरयन्ति क्वचित् कदाचिदुत्पत्था सर्वजगद्व्यापनेन विश्वभृतः....विश्रम्भिताः सजातविश्रम्भाः सत्यः प्रक्रमात् कर्मस्वेव तद्विपाकदारुणत्वापरिज्ञानात्। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र १८२। सुखबोधा, पत्र ६७: देवाउयं निबंधइ, सरागतवसंजमो। अणुव्वयधरो दंतो, सत्तो बालतवम्मि य।। जीवघायरओ कूरो, महारंभपरिग्गहो। मिच्छदिट्टी महापावो, बंधए नरयाउयं ।। बालतवे पडिबद्धा, उक्कडरोसा तवेण गारविया। वेरेण य पडिबद्धा, भरिऊणं जंति असुरेसु।। रज्जुग्गहणे विसभक्खणे य जलणे य जलपवेसे य। तण्हाछुहाकिलंता, मरिऊणं हुंति वंतरिया।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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