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________________ चतुरंगीय ८. (खत्तिओ, चंडाल बोक्कसो) इस श्लोक में आए हुए तीन शब्द -- क्षत्रिय, चाण्डाल और बुक्कस—संग्राहक हैं । क्षत्रिय शब्द से वैश्य, ब्राह्मण आदि उत्तम जातियों, चाण्डाल शब्द से निषाद, श्वपच आदि नीच जातियों और बुक्कस शब्द से सूत, वैदेह, आयोगव आदि संकीर्ण जातियों का ग्रहण किया गया है।" जैन और बौद्ध परम्परा में क्षत्रिय का स्थान सर्वोच्च रहा है। सुखबोधा वृत्ति में क्षत्रिय का अर्थ राजा किया है। कल्प- सूत्र में ब्राह्मण की गिनती भिक्षुक या तुच्छ कुल में की है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि शलाका-पुरुष ब्राह्मण कुल में उत्पन्न नहीं होते। दीघनिकाय और निदान-कथा के अनुसार क्षत्रियों का स्थान ब्राह्मणों से ऊंचा है। चण्डाल - शब्द के दो अर्थ किए गए हैं – (१) मातंग और ( २ ) शूद्र से ब्राह्मण स्त्री में उत्पन्न व्यक्ति । उत्तरवर्ती वैदिक साहित्य के अनुसार चण्डाल अनार्य वर्ग की एक जाति है। वह ऋग्वेद के समय के पश्चात् आर्यों को गंगा के पूरब में मिली थी। मनुस्मृति (१०1५१, ५२ ) में चण्डाल के कर्तव्यों का प्रस्तुत करते हुए कहा है चण्डालश्वपचानां तु बहिर्ग्रामात् प्रतिश्रयः । अपपात्राश्च कर्तव्या धनमेषां श्वगर्दभम् ।। वासांसि मृतचेलानि भिन्नाभाण्डेषु भोजनम् । कार्ष्णायसमलंकाराः परिवर्ज्या च नित्यशः ।। वोक्कसो—इसके संस्कृत रूप धार मिलते हैं-बुक्कस, पुष्कस, पुक्कस और पुल्कस । बुक्कस श्मशान पर काम करने वाले कहलाते विवरण बुक्क पुष्कस — जो मरे हुए कुत्तों को उठाकर बाहर फेंकते हैं, उन्हें पुष्कस कहा जाता है। " हैं । ७३ व्याख्याकारों ने दूसरे अर्थ (सर्व विषय) का विस्तार किया है। वह इस प्रकार है-राजाओं के पास समस्त प्रकार की सुख सामग्री और कामभोगों को उत्तेजित करने वाले पदार्थ उपलब्ध रहते हैं । इन्द्रिय-विषयों का उपभोग करते हुए भी वे कभी तृप्त नहीं होते। उनकी तृष्णा बढ़ती है, साथ-साथ प्रताप पुक्कस- चाण्डाल और पुक्कस - पर्यायवाची भी माने भी बढ़ता है और वे सर्वत्र प्रसिद्ध हो जाते हैं । वे शारीरिक गए हैं। 9. पुल्कस - भंगी । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८२, १८३ चण्डालग्रहणान्नीचजातयो बुक्कसग्रहणाच्च संकीर्णजातय उपलक्षिताः । इह च क्षत्रियग्रहणादुत्तमजातयः (ग) मनुस्मृति, १०।२५, २६, ४८ । दीघनिकाय, ३।१।२४, २६ । २. ३. निदानकथा, ११४६ । ४. सुखबोधा, पत्र ६७ 'चाण्डाल' मातङ्गः यदि वा शूद्रेण ब्राह्मण्या जातश्चाण्डालः । ५. हिन्दुस्तान की पुरानी सभ्यता, पृ. ३४ । ६. अभिधान चिंतामणि, ३।५६७ ७. वही, ३१५६७ । ८. महाभारत शान्तिपर्व १८०३८ । ६. मनुस्मृति, १०१४६ क्षत्रुग्रपुक्कसानां तु बिलौकोवधबन्धनम् । अध्ययन ३ : श्लोक ४, ५ टि०८,६ मनुस्मृति में विभिन्न वर्णों के कार्यों का विवरण दिया गया है। उसके अनुसार ' पुक्कस' का कार्य बिलों में रहने वाले गोह आदि को मारना या बांधना है। अभिधानप्पदीपिका में 'पुक्कस' का अर्थ तोड़ने वाला किया गया है । " चुर्णिकार और टीकाकार इसका अर्थ 'वर्णान्तरजन्मा ' करते हैं। जैसे—— ब्राह्मण से शूद्र स्त्री में उत्पन्न प्राणी निषाद, ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न प्राणी अम्बष्ठ और निषाद से अम्बष्ट स्त्री से उत्पन्न प्राणी बोक्कस कहलाता है।" कौटिल्य अर्थशास्त्र और मनुस्मृति में इनसे भिन्न मत का उल्लेख है । मनुस्मृति में बताया गया है कि ब्राह्मण से वैश्य कन्या से उत्पन्न अम्बष्ट और ब्राह्मण से शूद्र कन्या से उत्पन्न निषाद कहलाता है। इसको पारशव भी कहते हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र (पृष्ठ १६५, १६६) में ' पुक्कस' का अर्थ निषाद से उग्री में उत्पन्न पुत्र और मनुस्मृति में निषाद से शूद्र में उत्पन्न पुत्र किया गया है।" महाभारत" में चाण्डाल और पुल्कस का एक साथ प्रयोग मिलता है। 'पुल्कस' का प्राकृत 'बुक्कस' हो सकता है। पुल्कस और चाण्डाल अर्थात् भंगी और चाण्डाल । ९. ( सव्वट्ठेसु व खत्तिया) Jain Education International सर्वार्थ शब्द के दो अर्थ किए जा सकते हैं-सर्व प्रयोजन और सर्व विषय । जिस प्रकार कोई क्षत्रिय प्रयोजन उपस्थित होने पर पराजय स्वीकार नहीं करता, खिन्न नहीं होता, उसी प्रकार कर्म से कलुषित व्यक्ति संसार- भ्रमण से खिन्न नहीं होता । और मानसिक दुःखों को भोगते हुए भी उन कामभोगों से कभी विरक्त नहीं होते। वे और अधिक अनुरक्त होते जाते हैं। वे १०. अभिधानप्पदीपिका, पृ. ५०८ : पक्कसो पुष्पछड्डको । ११. ( क ) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ बुक्कसो वर्णान्तरभेदः, यथा बंभणेण सुद्दीए जातो णिसादोत्ति वुच्चति, बंभणेण वेसीते जातो अबटूट्ठेत्ति वुच्चति, तत्थ निसाएणं अंबटूटीए जातोसो बोक्कसो भवति । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८२ । (ग) सुखबोधा, पत्र ६७ । १२. मनुस्मृति, १० : ब्राह्मणाद् वैश्य कन्यायामम्बष्ठो नाम जायते । निषादः शूद्रकन्यायां यः पारशव उच्यते ।। १३. मनुस्मृति, १०।१८ जातो निषादाच्छूद्रायां जात्यां भवति पुक्कसः । १४. महाभारत, शान्तिपर्व, १८० / ३८ : न पुल्कसो न चाण्डाल, आत्मानं त्यक्तुमिच्छति । तया पुष्टः स्वया योन्या, मायां पश्यस्व यादृशीम् ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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