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________________ उत्तरज्झयणाणि ७४ अध्ययन ३ : श्लोक ७-६ टि० १०-१६ जन्म-मरण के आवर्त से छुटकारा नहीं पा सकते।' विजय का परिणाम बतलाया है। शान्ति से परीषहों को जीतने वैसे ही अधर्म में रत व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्त की क्षमता प्राप्त होती है। नहीं हो सकते। १४. श्रद्धा (सद्धा) १०. कर्म-किल्विष (कम्मकिब्बिसा) बृहवृत्ति के अनुसार श्रद्धा का अर्थ है-धर्म के प्रति कर्मों से मलिन अथवा जिनके कर्म मलिन हों, वे रुचि या धर्म करने की अभिलाषा। निरुक्त में श्रत् का अर्थ कर्म-किल्विष कहलाते हैं। कर्म दो प्रकार के होते हैं शुभानुबन्धी सत्य और वह जिस बुद्धि में धारण किया जाता है, उसका नाम और अशुभानुबन्धी। जिनके अशुभानुबन्धी कर्म होते हैं वे है श्रद्धा।" 'कर्म-किल्विष' होते हैं। इन विचार-सूत्रों के आधार पर श्रद्धा का अर्थ सत्योन्मुखी ११. योनिचक्र में (आवजोणीसु) अभिरुचि किया जा सकता है। जीवों के उत्पत्ति स्थान को 'योनि' कहते हैं। वे ८४ लाख १५. मोक्ष की ओर ले जाने वाले (नेआउयं) हैं। अनादिकाल से जीव इन योनियों में जन्म-मरण करता रहा चूर्णिकार ने इसका अर्थ ले जाने वाला किया है। टीका है। जन्म-मरण का यह आवर्त है।' में इसका अर्थ न्यायोपपन्न किया गया है। डॉ. ल्यूमेन ने १२. (श्लोक ७) औपपातिक सूत्र में तथा डॉ. पिशल, डॉ. हरमन जेकोबी आदि गति के चार प्रकार हैं-१. नरकगति, २. तिर्यचगति, ३. ने इसका अर्थ न्यायोपपन्न किया है।" मनुष्यगति और ४. देवगति। तिर्यच और नरकगति के योग्य बौद्ध साहित्य में नैर्यानिक का अर्थ दुःखक्षय की ओर ले कर्म मनुष्यगति की प्राप्ति के प्रतिबन्धक होते हैं। उनके जाने वाला, पार ले जाने वाला किया गया है।" चूर्णिकार के अर्थ अस्तित्व-काल में जीव मनुष्यगति को प्राप्त नहीं होता। 'आनुपूर्वी' का इससे निकट का सम्बन्ध है। इस अर्थ के आधार पर नामकर्म की एक प्रकृति है। मनुष्य-आनुपूर्वी नामकर्म का उदय 'नेआउय' का संस्कृत रूप नैर्यातक होना चाहिए। नैर्यातक के होने पर जीव मनुष्य गति में आता है। निष्कर्ष यह है कि प्राकृत रूप 'नेआइय' और 'नेआउय' दोनों बन सकते हैं। मनुष्यगति के बाधक कर्मों का नाश तथा मनुष्य-आनुपूर्वी सूत्रकृतांग चूर्णि में ये दोनों रूप प्रयुक्त हुए हैं। वहां इनका अर्थ नामकर्म का उदय होने पर जीव को मनुष्यगति में आने की मोक्ष की ओर ले जाने वाला किया गया है।'६ शुद्धि प्राप्त होती है। उसी अवस्था में वह मनुष्य बनता है। १६. बहुत लोग....उससे प्रष्ट हो जाते हैं (बहवे परिभस्सई) १३. तप, सहिष्णुता और अहिंसा को (तवं खतियमहिंसय) इस पद में चूर्णिकार और शान्त्याचार्य ने जमाली आदि इस चरण में 'तव' के द्वारा तपस्या के बारह भेदों, ‘खंति' निह्नवों का उल्लेख किया है। ये सभी निह्नव कुछ एक के द्वारा दस-विध श्रमण-धर्म और 'अहिंसा' द्वारा पांच महाव्रतों शंकाओं को लेकर नैर्यातृकमार्ग-निग्रंथ प्रवचन से भ्रष्ट हो गए का ग्रहण किया गया है, ऐसा सभी व्याख्याकारों का मत है। थे, दूर हो गए थे। शान्ति का अर्थ है—सहिष्णुता, क्षमा। वृत्तिकार ने इसका अर्थ नेमिचन्द्र ने सातों निह्नवों का विवरण उद्धृत किया क्रोध-जय किया है। उनतीसवें अध्ययन में शान्ति को क्रोध- है। वह आवश्यक नियुक्ति में भी है। डॉ. ल्यूमेन ने १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६७। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८४ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८३। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र १८४ : शान्तिं क्रोधजयलक्षणाम्। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६७ : 'कम्मकिब्बिसा' इति कम्मेहिं ८. उत्तराध्ययन २६६८ : कोहविजएणं खंति जणयइ। किब्बिसा, कम्मकिब्बिसा, कर्माणि तेषां किब्बिसाणि कर्मकिब्बिसा। ६. उत्तराध्ययन २६।४७ : खंतीए णं परीसहे जिणइ। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८३ : कर्मणाः--उक्तरूपेण किल्बिषा:--अधमाः १०. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १८५ : श्रद्धा रुचिरूपा प्रक्रमाद् धर्मविषयेव। कर्मकिल्बिषाः, प्राकृतत्वाद्वा पूर्वापरिनिपातः, किल्विषाणि-क्लिप्टतया (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १४४ : श्रद्धा धर्मकरणाभिलाषः । निकृष्टान्यशुभानुबन्धीनि कर्माणि येषां ते किल्विषकर्माणः। ११. पातंजल योगदर्शन १२०, टीका पृ. ५५ । ३. सुखबोधा, पत्र ६७ : आवतः-परिवतः तत्प्रधाना योनयः- १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६८: नयनशीलो नैयायिकः । चतुरशीतिलक्षप्रमाणानि जीवोत्पत्तिस्थानानि आवर्त्तयोनयस्तासु। १३. बृहवृत्ति, पत्र १८५ : नैयायिकः, न्यायोपपन्न इत्यर्थः । ४. पन्नवणा २३१५४। १४. देखें-उत्तराध्ययन चार्ल सरपेन्टियर, पृ. २६२। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६८ : तेषां मानुसजातिनिर्वर्तकानां कर्मणां १५. बृद्धचर्या, पृ. ४६७, ४८६ । प्रहीयते इति प्रहाणा, आनुपूर्वी नाम क्रमः तया आनुपूर्व्या, प्रहीयमाणेषु १६. (क) सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. ४५७ : नयनशीलो नेयाइओ मोक्ष नयतीत्यर्थः । मनुष्ययोनिघातिषु कर्मसु निर्वर्तकेषु वा आनुपूर्वेण उदीर्यमाणेसु, कथं (ख) सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. ४५५ : मोक्खं णयणशीलो णेयाउओ। आना उदीर्यते? उच्यते, उक्कड्ढतं जहा तोय, अहवा कम्मं वा जोग १७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६८। व भवं आयुगं वा मणुस्सगतिणामगोत्तस्स कस्मिंश्चित्तु काले कदाचित (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८५। पु पूरणे, न सर्वदेवैत्यर्थः, 'जीवा सोधिमणुप्पत्ता शुद्ध्यते अनेनेति वा सोधिमणुप्पत्ता शुद्धयते अनेनेति १८. सुखबोधा, पत्र ६६-७५, शोधिः तदावरणीय कर्मापगमादित्यर्थः । १६. आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ४०१। ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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