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________________ उत्तरज्झयणाणि के पाश को छिन्न करने के लिए अन्यत्व भावना का अभ्यास और द्वेष के पास को छिन्न करने के लिए मैत्री की भावना का अभ्यास आवश्यक है 1 २५. विष तुल्य (विसभक्खीणि) 1 'बिसभक्खीणि' —यह विशेषण है वृत्तिकार ने विशेष्य को गम्य माना है। इसका अर्थ है वह लता विषतुल्य फलों को उत्पन्न करती है।' ३८६ २६. जलों में उत्तम जल ( वारि जलुत्तमं ) प्रस्तुत चरण में 'वारि' और 'जल' दोनों शब्दों का प्रयोग है । 'जलुत्तमं' यह वारि का विशेषण है। इसका अर्थ है— जल में उत्तम जल ।२ २७. साहसिक (साहसिओ) सूत्रकार के समय में इसका अर्थ 'बिना विचारे काम करने वाला' रहा है । तदन्तर इसके अर्थ का उत्कर्ष हुआ और आज इसका अर्थ 'साहस वाला', 'साहसिक' किया जाता है। २८. जो कुप्रवचन के दार्शनिक हैं (कुप्पवयणपाखंडी) प्रवचन शब्द के अनेक अर्थ हैं—शास्त्र, शासन, दर्शन आदि । जो दर्शन एकान्तवादी होता है, उसे कुप्रवचन कहा जाता है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०६ आर्षत्वात् फलति विषवद् भक्ष्यन्त इति विषभक्ष्याणि - पर्यन्तदारुणतया विषोपमानि फलानीति गम्यते । २. वही, पत्र ५०६ : वारि... पानीयं जलोत्तमं शेषजलापेक्षया प्रधानं । ३. वही, पत्र ५०७ सहसा असमीक्ष्य प्रवर्त्तत इति साहसिकः । Jain Education International अध्ययन २३ : श्लोक ५१-८७ टि० २५-३० वृत्तिकार ने 'पासण्डी' का अर्थ व्रती किया है। प्राचीन साहित्य में पाषण्ड का अर्थ-भ्रमण संप्रदाय है। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ किसी एक संप्रदाय या विचारधारा को मानने वाला दार्शनिक किया जा सकता है । २९. (श्लोक ८०-८३) प्रस्तुत श्लोकों के स्थान के तीन विशेषण प्रयुक्त हैंक्षेम, शिव और अनाबाध। क्षेम और शिव—दोनों शब्द कल्याण के पर्यायवाची हैं। यहां आरोग्य अवस्था के लिए क्षेम और उपद्रव मुक्त अवस्था के लिए शिव का प्रयोग किया गया है। अनाबाध का अर्थ है -वेदनामुक्त । वृत्तिकार ने व्याधि के अभाव के साथ क्षेमत्व की, जरा और मरण के अभाव के साथ शिवत्व की और वेदना के अभाव के साथ अनाबाधकत्व की संबंध योजना की है। * ३०. पूर्वमार्ग..... पश्चिममार्ग (पुरिमस्स पच्छिमंमी) अर्हत् पार्श्व पूर्ववर्ती हैं और भगवान् महावीर उत्तरवर्ती। इसीलिए पार्श्व के मार्ग के लिए 'पुरिम' शब्द और महावीर के मार्ग के लिए 'पच्छिम' शब्द का प्रयोग किया गया है। वृत्तिकार ने 'पुरिमस्स' का अर्थ आद्य तीर्थंकर ऋषभ और 'पच्छिमंमी' का अर्थ चरम तीर्थंकर महावीर किया है। वही, पत्र ५०८ पाषण्डिनो व्रतिनः । वही, पत्र ५१० : व्याध्यभावेन क्षमत्वं, जरामरणाभावेन शिवत्वं, वेदनाऽभावेनानाबाधकत्वमुक्तमिति । ६. वही, पत्र ५११, ५१२। ४. ५. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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