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आमुख
इस अध्ययन का नाम आद्य-पद (आदान-पद) 'दुमपत्तए' वन्दना की और उन सबको वन्दना करने के लिए कहा। के आधार पर 'द्रुमपत्रक' रखा गया है।
भगवान् ने गौतम को सम्बोधित कर कहा- “गौतम ! केवलियों कई कारणों से गौतम गणधर के मन में विचिकित्सा हुई। की आशातना मत करो।" गौतम ने उनसे क्षमा याचना की, पर भगवान् महावीर ने उसका निराकरण करने के लिए इस मन शंकाओं से भर गया। उन्होंने सोचा-“मैं सिद्ध नहीं अध्ययन का प्रतिपादन किया। नियुक्तिकार तथा बृहद्वृत्तिकार ने होऊंगा।" यहां एक कथानक का उल्लेख किया है। उसका संक्षेप इस प्रकार एक बार गौतम अष्टापद पर्वत पर गए। वहां पहले से
ही तीन तापस अपने-अपने पांच-पांच सौ शिष्यों के परिवार से उस काल और उस समय पृष्टचम्पा नाम की नगरी थी। तप कर रहे थे। उनके नाम थे कौडिन्य, दत्त और शैवाल । वहां शाल नाम का राजा था और युवराज का नाम था महाशाल। दत्त बेले-बेले की तपस्या करता। वह नीचे पड़े पीले पत्ते उसके यशस्वती नाम की बहिन थी। उसके पति का नाम पिठर खा कर रहता था। वह अष्टापद की दूसरी मेखला तक ही चढ़ था। उसके एक पुत्र हुआ। उसका नाम गागली रखा गया। एक पाया। बार भगवान महावीर राजगृह से विहार कर पृष्ठचम्पा पधारे। कौडिन्य उपवास-उपवास की तपस्या करता और पारणे सुभूमि-भाग उद्यान में ठहरे। राजा शाल भगवान् की वन्दना में मूल, कन्द आदि सचित्त आहार करता था। वह अष्टापद करने गया। भगवान् से धर्म सुना और विरक्त हो गया। उसने पर्वत पर चढ़ा किन्तु एक मेखला से आगे नहीं जा सका। भगवान् से प्रार्थना की—“भन्ते ! मैं महाशाल का राज्याभिषेक शेवाल तेले-तेले की तपस्या करता था। वह सूखी शैवाल कर दीक्षित होने के लिए अभी वापस आ रहा हूं।" वह नगर (सेवार) खाता था। वह अष्टापद की तीसरी मेखला तक ही चढ़ में गया। महाशाल से सारी बात कही। उसने भी दीक्षा लेने की सका। भावना व्यक्त की। वह बोला-"मैं आपके साथ ही प्रव्रजित गौतम आए। तापस उन्हें देख परस्पर कहने लगे."हम होऊंगा।” राजा ने अपने भानजे गागली को काम्पिल्यपुर से महातपस्वी भी ऊपर नहीं जा सके, तो यह कैसे जाएगा ?" बुलाया और उसे राज्य का भार सौंप दिया। गागली अब राजा गौतम ने जंघाचरण-लब्धि का प्रयोग किया और मकड़ी के हो गया। उसने अपने माता-पिता को भी वहीं बुला लिया। जाले का सहारा ले पर्वत पर चढ़ गये। तापसों ने आश्चर्य इधर शाल और महाशाल भगवान के पास दीक्षित हो गए। भरी आंखों से यह देखा और वे अवाक रह गए। उन्होंने मन यशस्वती भी श्रमणोपासिका हुई। उन दोनों श्रमणों ने ग्यारह ही मन यह निश्चय कर लिया कि ज्योंही मुनि नीचे उतरेंगे, हम अंगों का अध्ययन किया।
उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लेंगे। गौतम ने रात्रिवास पर्वत भगवान् महावीर पृष्टचम्पा से विहार कर राजगृह गए। पर ही किया। जब सुबह वे नीचे उतरे, तव तापसों ने उनका वहां से विहार कर चम्पा पधारे। शाल और महाशाल भगवान के रास्ता रोकते हए कहा-“हम आपके शिष्य हैं और आप पास आए और प्रार्थना की---“यदि आपकी अनुज्ञा हो तो हम हमारे आचार्य ।” गौतम ने कहा-“तुम्हारे और हमारे आचार्य पृष्ठचम्पा जाना चाहते हैं। सम्भव है किसी को प्रतिबोध मिले त्रैलोक्य गुरु भगवान महावीर हैं।" तापसों ने साश्चर्य पूछा--- और कोई सम्यग्दर्शी बने।" भगवान् ने अनुज्ञा दी और गौतम "तो क्या आपके भी आचार्य हैं ?" गौतम ने भगवान् के के साथ उन्हें वहां भेजा। वे पृष्ठचम्पा गए। वहां के राजा गागली गुणगान किए और सभी तापसों को प्रव्रजित कर भगवान् की और उसके माता-पिता को दीक्षित कर वे पुनः भगवान् महावीर दिशा में चल पड़े। मार्ग में भिक्षा-वेला के समय भोजन के पास आ रहे थे। मार्ग में चलते-चलते मुनि शाल और करते-करते शैवाल तथा उसके सभी शिष्यों को केवलज्ञान महाशाल के अध्यवसायों की पवित्रता बढ़ी और वे केवली हो प्राप्त हो गया। दत्त तथा उसके शिष्यों को छत्र आदि अतिशय गए। गागली और उसके माता-पिता–तीनों को केवलज्ञान देख कर केवलज्ञान हुआ। कौडिन्य तथा उसके शिष्यों को हुआ। सभी भगवान् के पास पहुंचे। गौतम ने भगवान् की भगवान् महावीर को देखते ही केवलज्ञान हो गया। गौतम इस
१. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २८३ :
दुमपत्तेणोवम्म अहाठिईए उवक्कमेणं च। इत्थ कयं आईमी तो तं दुमपत्तमज्झयणं ।।
समवाओ (प्रकीर्णक समवाय ३८) में भगवान महावीर के केवलज्ञानी शिष्यों की संख्या सात सी है। प्रस्तुत कथा के अनुसार पन्द्रह सी की संख्या केवल इन्हीं तापसों की हो जाती है। यह आगम के अनुसार संगत नहीं है।
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