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________________ उत्तरज्झयणाणि ५८२ अध्ययन ३४ : श्लोक २६-३८ २६. पयणुक्कोहमाणे य प्रतनुक्रोधमानश्च जिस मनुष्य के क्रोध, मान, माया और लाभ अत्यन्त मायालोभे य पयणुए। मायालोभश्च प्रतनुकः। अल्प हैं, जो प्रशान्त-चित्त है, अपनी आत्मा का पसंतचित्ते दंतप्पा प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा दमन करता है, समाधि-युक्त है, उपधान करने जोगवं उवहाणवं ।। योगवानुपधानवान्।। वाला है, ३०. तहा पयणुवाई य तथा प्रतनुवादी च अत्यल्प भाषी है, उपशान्त है, जितेन्द्रिय है----जो उवसंते जिइंदिए। उपशान्तो जितेन्द्रियः। इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह पद्म लेश्या में एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तः परिणत होता है। पम्हलेसं तु परिणमे।। पद्मलेश्यां तु परिणमेत् ।। ३१. अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता आर्त्तरौद्रे वर्जयित्वा जो मनुष्य आर्त और रौद्र-इन दोनों ध्यानों को धम्मसुक्काणि झायए। धर्म्यशुक्ले ध्यायेत्। छोड़कर धर्म्य और शुक्ल-इन दो ध्यानों में लीन पसंतचित्ते दंतप्पा प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा रहता है, प्रशान्त-चित्त है, अपनी आत्मा का दमन समिए गुत्ते य गुत्तिहिं ।। समितो गुप्तश्च गुप्तिभिः ।। करता है, समितियों से समित है, गुप्तियों से गुप्त है, ३२. सरागे वीयरागे वा सरागो वीतरागो वा उपशान्त है, जितेन्द्रिय है—जो इन सभी प्रवृत्तियों उवसंते जिइंदिए। उपशान्तो जितेन्द्रियः। से युक्त है, वह सराग हो या वीतराग, शुक्ल लेश्या एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तः में परिणत होता है। सुक्कलेसं तु परिणमे ।। शुक्ललेश्यां तु परिणमेत् ।। ३३. असंखिज्जाणोसप्पिणीण असंख्येयानामवसर्पिणीनां असंख्येय अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के जितने उस्सप्पिणीण जे समया। उत्सर्पिणीनां ये समयाः। समय होते हैं, असंख्यात लोकों के जितने संखाईया लोगा संख्यातीता लोका आकाश-प्रदेश होते हैं, उतने ही लेश्याओं के स्थान लेसाण हुंति ठाणाई।। लेश्यानां भवन्ति स्थानानि।। (अध्यवसाय-परिमाण) होते हैं। ३४. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्तार्धं तु जघन्या कृष्ण लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और तेत्तीसं सागरा मुहुत्तहिया। त्रयस्त्रिंशत्सागरा मुहूर्ताधिकाः।। उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर उक्कोसा होइ ठिई उत्कृष्टा भवति स्थितिः की होती है। नायव्वा किण्हलेसाए।। ज्ञातव्या कृष्णलेश्यायाः।। ३५. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्तार्धं तु जघन्या नील लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और दस उदही पलियमसंखभागमब्भहिया। दशोदधिपल्यासंख्यभागाधिका। उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक उक्कोसा होइ ठिई उत्कृष्टा भवति स्थितिः दश सागर की होती है। नायव्वा नीललेसाए।। ज्ञातव्या नीललेश्यायाः।। ३६. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्तार्धं तु जघन्या कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और तिण्णुदही पलियमसंखभागमब्महिया। युदधिपल्यासंख्यभागाधिका। उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक उक्कोसा होइ ठिई उत्कृष्टा भवति स्थितिः तीन सागर की होती है। नायव्वा काउलेसाए।। ज्ञातव्या कापोतलेश्यायाः।। ३७. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्तार्धं तु जघन्या तेजो लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और दोउदही पलियमसंखभागमब्महिया। ड्युदधिपल्यासङ्ख्यभागधिका।। उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक उक्कोसा होइ ठिई उत्कृष्टा भवति स्थतिः दो सागर की होती है। नायव्वा तेउलेसाए।। ज्ञातव्या तेजोलेश्यायाः।। ३८. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्तार्थं तु जघन्या पद्म लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दस होंति सागरा मुहुत्तहिया। दश भवन्ति सागरा मुहूर्त्ताधिकाः। स्थिति मुहूर्त अधिक दश सागर की होती है। उक्कोसा होइ ठिई उत्कृष्टा भवति स्थितिः नायव्वा पम्हलेसाए।। ज्ञातव्या पद्मलेश्यायाः।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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