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________________ लेश्या-अध्ययन ५८१ अध्ययन ३४ :श्लोक १६-२८ १६. जह बूरस्स व फासो यथा धूरस्य वा स्पर्शः बूर, नवनीत और सिरीष के पुष्पों का स्पर्श जैसा नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं। नवनीतस्य वा शिरीषकुसुमानाम्। मृदु होता है, उससे भी अनन्त गुना मृदु स्पर्श तीनों एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनंतगुणः प्रशस्त लेश्याओं का होता है। पसत्थलेसाण तिण्हं पि।।। प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपि।। २०. तिविहो व नवविहो वा त्रिविधो वा नवविधो वा लेश्याओं के तीन, नौ, सत्ताईस, इक्यासी या दो सौ सत्तावीसइविहेक्कसीओ वा। सप्तविंशतिविधि एकाशीतिविधो वा तेंतालीस प्रकार के परिणाम होते हैं। दुसओ तेयालो वा त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशतविधो वा लेसाणं होइ परिणामो।। लेश्यानां भवति परिणामः।। २१. पंचासवप्पवत्तो पंचाश्रवप्रवृत्तः जो मनुष्य पांचों आश्रवों में प्रवृत्त है, तीन गुप्तियों तीहिं अगुत्तो छसु अविरओ य। तिसृभिरगुप्तः षट्स्वविरतश्च।। से अगुप्त है, षट्काय में अविरत है, तीव्र आरम्भ तिव्वारंभपरिणाओ तीव्रारम्भपरिणतः (सावद्य-व्यापार) में संलग्न है, क्षुद्र है, बिना विचारे खुद्दो साहसिओ नरो।। क्षुद्रः साहसिको नरः।। कार्य करने वाला है, २२. निद्धंधसपरिणामो निश्शङ्कपरिणामः लौकिक और पारलौकिक दोषों की शंका से रहित निस्संसो अजिइंदिओ। नृशंसोऽजितेन्द्रियः। मन वाला है, नुशंस है," अजितेन्द्रिय है—जो इन एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तः सभी से युक्त है, वह कृष्ण लेश्या में परिणत होता किण्हलेसं तु परिणमे ।। कृष्णलेश्यां तु परिणमेत् ।। २३. इस्साअमरिसअतवो ईर्ष्याऽमर्षातपः जो मनुष्य ईर्ष्यालु है, कदाग्रही है, अतपस्वी है, अविज्जमाया अहीरिया। अविद्या मायाऽडीकता च। अज्ञानी है, मायावी है, निर्लज्ज है, गृद्ध है, प्रद्वेष गेद्धी पओसे य सढे पमत्ते गृद्धिः प्रदोषश्च शठः प्रमत्तो करने वाला है, शठ है, प्रमत्त है, रस-लोलुप है, रसलोलुए सायगवेसए य।। रसलोलुपः सातगवेषकश्च ।। सुख का गवेषक है, २४. आरंभाओ अविरओ आरम्भादविरतः आरम्भ से अविरत है, क्षुद्र है, बिना विचारे कार्य खुद्दो साहस्सिओ नरो। क्षुद्रः साहसिको नरः। करने वाला है—जो इन सभी से युक्त है, वह नील एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तो लेश्या में परिणत होता है। नीललेसं तु परिणमे ।। नीललेश्यां तु परिणमेत् ।। २५. वंके वंकसमायारे वक्रो वक्रसमाचारः जो मनुष्य वचन से वक्र है, जिनका आचरण वक्र नियडिल्ले अणुज्जुए। निकृतिमान् अनृजुकः। है, माया करता है, सरलता से रहित है, अपने दोषों पलिउंचग ओवहिए परिकुंचक औपधिकः को छुपाता है, छद्म का आचरण करता है, मिच्छदिट्ठी अणारिए।। मिथ्यादृष्टिरनार्यः।। मिथ्या-दृष्टि है, अनार्य है, २६. उप्फालगदुट्ठवाई य उत्प्रासकदुष्टवादी च हंसोड़ है, दुष्ट वचन बोलने वाला है, चोर है, तेणे यावि य मच्छरी। स्तेनश्चापि च मत्सरी। मत्सरी है—जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तः कापोत लेश्या में परिणत होता है। काउलेसं सु परिणमे।। कापोतलेश्यां तु परिणमेत् ।। २७. नीयावित्ती अचवले नीर्वृत्तिरचपलः जो मनुष्य नम्रता से वर्ताव करता है, अचपल है, अमाई अकुऊहले। अमायी अकुतूहलः। माया से रहित है, अकुतूहली है, विनय करने में विणीयविणए दंते। विनीतविनयः दान्तः निपुण है, दान्त है, समाधि-युक्त है, उपधान (श्रुत जोगवं उवहाणवं ।। योगवानुपधानवान्।। अध्ययन करते समय तप) करने वाला है, २८. पियधम्मे दढधम्मे प्रियधर्मा दृढधर्मा धर्म में प्रेम रखता है, धर्म में दृढ़ है,१२ पाप-भीरु वज्जभीरू हिएसए। वयंभीरुर्हितैषकः। है, हित चाहने वाला है जो इन सभी प्रवृत्तियों एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तः से युक्त है, वह तेजोलेश्या में परिणत होता है। तेउलेसं तु परिणमे ।। तेजोलेश्यां तु परिणमेत् ।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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