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________________ आमुख का 'वासह तपस्या मोक्ष का मार्ग है। उससे तपस्वी की मोक्ष की उसकी नितांत उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। देहासक्ति ओर गति होती है—यह इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है। विलासिता और प्रमाद को जन्म देती है। परन्तु धर्म-साधना के इसलिए इस अध्ययन का नाम 'तवमग्गगई'-'तपो-मार्ग-गति' लिए देह की सुरक्षा करना भी नितांत अपेक्षित है। जैन मुनि का 'वोसट्ठचत्तदेहे'—यह विशेषण देहासक्ति के त्याग का परिचायक प्रत्येक संसारी जीव प्रतिक्षण कुछ-न-कुछ प्रवृत्ति अवश्य है। करता है। जब वह अक्रिय होता है तब वह मुक्त हो जाता है। १-२ अनशन और अवमोदरिका से भूख और प्यास पर जहां प्रवृत्ति है वहां कर्म-पुद्गलों का आकर्षण और निर्जरण विजय पाने की ओर गति होती है। होता है। प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है-शुभ और अशुभ। ३-४ भिक्षाचर्या और रस-परित्याग से आहार की लालसा शुभ प्रवृत्ति से अशुभ कमों का निर्जरण और शुभ-कर्म (पुण्य) सीमित होती है, जिला की लोलुपता मिटती है और का बन्ध होता है। अशुभ प्रवृत्ति से अशुभ-कर्म (पाप) का निद्रा, प्रमाद, उन्माद आदि को प्रोत्साहन नहीं बन्ध होता है। मिलता। तपस्या कर्म-निर्जरण का मुख्य साधन है। इससे आत्मा ५. कायक्लेश से सहिष्णुता का विकास होता है, देह में पवित्र होती है। उत्पन्न दुःखों को समभाव से सहने की वृत्ति बनती भारतीय साधना-पद्धति में तपस्या का प्रमुख स्थान रहा है। है। जैन और वैदिक मनीषियों ने उसे साधना का अपरिहार्य ६. प्रतिसंलीनता से आत्मा की सन्निधि में रहने का अंग माना है। बौद्ध तत्त्व-द्रष्टा उससे उदासीन रहे हैं। अभ्यास बढ़ता है। महात्मा बुद्ध अपनी साधना के प्रथम चरण में उग्र आभ्यंतर तप के छह भेद हैंतपस्वी थे। उन्होंने कई वर्षों तक कठोर तपस्या की थी, परन्तु १. प्रायश्चित्त ४. स्वाध्याय जब उन्हें सफलता नहीं मिली तब उन्होंने उसे अपनी साधना २. विनय ५. ध्यान में स्थान नहीं दिया। ३. वैयावृत्त्य ६. व्युत्सर्ग। जैन-साधना के अनुसार तपस्या का अर्थ काय-क्लेश १. प्रायश्चित्त से अतिचार-भीरुता और साधना के या उपवास ही नहीं है। स्वाध्याय, ध्यान, विनय आदि सब प्रति जागरुकता विकसित होती है। तपस्या के विभाग हैं। २. विनय से अभिमान-मुक्ति और परस्परोग्रह का काय-क्लेश और उपवास अकरणीय नहीं हैं और उनकी विकास होता है। सबके लिए कोई समान मर्यादा भी नहीं है। अपनी रुचि और ३. वैयावृत्त्य से सेवाभाव पनपता है। शक्ति के अनुसार जो जितना कर सके उसके लिए उतना ही ४. स्वाध्याय से विकथा त्यक्त हो जाती है। विहित है। ध्यान से एकाग्रता, एकाग्रता से मानसिक विकास जैन-दृष्टि से तपस्या दो प्रकार की है--वाह्य और एवं मन तथा इन्द्रियों पर नियंत्रण पाने की क्षमता आभ्यंतर। बढ़ती है और अंत में उनका पूर्ण निरोध हो जाता बाह्य तप के छह प्रकार हैं१. अनशन ४. रस-परित्याग ६. व्युत्सर्ग से शरीर, उपकरण आदि पर होने वाले २. अवमोदरिका ५. कायक्लेश ममत्व का विसर्जन होता है। ३. भिक्षाचर्या ६. प्रतिसंलीनता। अथवा तप दो प्रकार का है-सकाम और अकाम। इनके आचरण से देहाध्यास छूट जाता है। देहासक्ति एकमात्र मोक्ष-साधना की दृष्टि से किया जाने वाला तप सकाम साधना का विध्न है। इसीलिए मनीषियों ने देह के ममत्व-त्याग होता है और इसके अतिरिक्त अन्यान्य उपलब्धियों के लिए का उपदेश दिया है। शरीर धर्म-साधना का साधन है इसलिए किया जाने वाला अकाम। जैन साधना-पद्धति में सकाम तप उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५१३ : दुविहतवोमग्गगई, वन्निज्जइ जम्ह अज्झयणे। तम्हा एअज्झयणं, तवमग्गगइत्ति नायव्वं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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