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तपो-मार्ग-गति
की उपादेयता है और उसे ही पूर्ण पवित्र माना गया है।
तप के तीन प्रकार भी किए गए हैं —— कायिक, वाचिक और मानसिक । शौच, आर्जव, ब्रह्मचर्य आदि का पालन करना कायिक तप है। प्रिय, हितकर, सत्य और अनुद्विग्न वचन बोलना, स्वाध्याय में रत रहना वाचिक तप हैं। आत्म-निग्रह, मौन-भाव, सौम्यता आदि मानसिक तप हैं
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शिष्य ने पूछा - "भंते! तप से जीव क्या प्राप्त करता
है ?"
भगवान् ने कहा- - " तप से वह पूर्व - संचित कर्मों का क्षय कर विशुद्धि को प्राप्त होता है। इस विशुद्धि से वह मन, वचन
१. उत्तरज्झयणाणि २६० २८, २६
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अध्ययन ३० : आमुख
और शरीर की प्रवृत्ति के पूर्ण निरोध को प्राप्त होता है। अक्रियावान् होकर वह सिद्ध होता है, प्रशान्त होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और दुःखों का अंत करता है।""
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भगवान् ने कहा- " इहलोक के निमित्त तप मत करो। परलोक के लिए तप मत करो। श्लाघा प्रशंसा के लिए तप मत करो। केवल निर्जरा के लिए— आत्म-विशुद्धि के लिए तप करो। २
तपस्या के अवांतर भेदों का निरूपण आगमों तथा व्याख्या ग्रंथों में प्रचुरता से हुआ है।
२.
दशवैकालिक, ६४ । सू० ६
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