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________________ रथनेमीय पाठ मिलता है। 'ज' को 'ग' का वर्णादेश होता है। इसलिए 'भोगरायस्स' पाठ भी शुद्ध है । इसका संस्कृत रूप 'भोजराजस्य' ही होगा। ३६७ अध्ययन २२ : श्लोक ४३-४५ टि० ३५-३७ इसे हुए व्यक्ति के व्रण से मुंह लगाकर विप को वापस खींच लेते हैं। वे अग्नि से जलकर मरना नहीं चाहते। अगन्धन जाति के सर्प अग्नि में जलकर भस्म हो जाना पसन्द करते हैं, पर वान्त विष को पुनः चूसना नहीं चाहते ।' देखें- दसवे आलियं, २६ का टिप्पण । ३६. हट– जलीय वनस्पति काई (हो) भोज यादवों का एक विभाग था। कृष्ण जिस संघ राज्य के नेता थे, उसमें यादव, कुकुर, भोज और अन्धक - वृष्णि सम्मिलित थे। अन्धक और वृष्णि- ये दो अलग-अलग राजनीतिक दल थे। इनका उल्लेख पाणिनि ने भी किया है। ये दोनों दल एक ही भूभाग पर शासन करते थे। ऐसी शासनप्रणाली को विरुद्ध राज्य कहा जाता था। अन्धकों के नेता अक्रूर, कृष्णियों के नेता वासुदेव और भोज के नेता उग्रसेन थे। देखें- दसवे आलियं २ १८ का टिप्पण । ३५. गंधन सर्प (गंधणा) सर्प की दो जातियां हैं— गन्धन और अगन्धन। गंधन जाति के सर्प डसने के बाद मंत्रों से आकृष्ट किए जाने पर, Jain Education International वृत्तिकार ने इसका अर्थ वनस्पति- विशेष किया है। दशवैकालिक की हारिभद्रीया वृत्ति में इसका अर्थ है – एक प्रकार की अवद्धमूल वनस्पति। इसको सेवाल कहा जाता है । विशेष विवरण के लिए देखें-दसवेआलियं, २६ का टिप्पण | ३७. भांडपाल (मंडवालो) भाण्डपाल वह व्यक्ति होता है जो दूसरों की वस्तुओं की किराए (भाडे) पर सुरक्षा करता है। * १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६५ सप्पाणं किले दो जाईओ-गंधणा य अगंधणा य, तत्थ गंधणा णाम जे डसिए मंतेहिं आकड्डिया तं विसं वणमुहातो ४. आवियंति। अगंधणा उण अवि मरणमज्झवसंति ण य वंतमाइयंति। २. वही, पत्र ४६५ हठो-वनस्पतिविशेषः । ३. वृत्ति, पत्र ६७ हडो.....अवद्धमूलो वनस्पतिविशेषः । बृहद्वृत्ति, पत्र ४६५ : भाण्डपालो वा यः परकीयानि भाण्डानि भाटकादिना पालयति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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