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जीवाजीवविभक्ति
का ही एक भेद माना गया है।"
प्रज्ञापना में कठिन पृथ्वी को चालीस श्रेणियों में विभक्त किया गया है। उत्तराध्ययन में उसकी छत्तीस श्रेणियां बतलाई गई हैं। शान्त्याचार्य के अनुसार लोहिताक्ष और वसारगल्ल, क्रमशः स्फटिक और मरकत तथा गेरुक और हंसगर्भ चन्दन के उपभेद हैं। वृत्तिकार ने शुद्ध पृथ्वी से लेकर वज्र तक के चौदह प्रकार तथा हरिताल से लेकर आम्रबालुका तक के आठ प्रकार स्पष्ट माने हैं। गोमेदक से लेकर शेष सब चौदह प्रकार होने चाहिए, किन्तु अठारह होते हैं। इनमें से चार वस्तुओं का दूसरों में अन्तर्भाव होता है वृत्तिकार इस विषय में पूर्णरूपेण असंदिग्ध नहीं है कि किसमें किसका अन्तर्भाव होना चाहिए।* १६. (कायठिझं...अंतरं)
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कायस्थिति—एक ही जीवनिकाय में निरन्तर जन्म ग्रहण करते रहने की काल मर्यादा । *
अंतरकाल - एक काल का परित्याग कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल 'अन्तर- काल' कहलाता है।" कायस्थिति के नियम के अनुसार एक ही काय में निरन्तर भव-परिवर्तन होता रहता है। अन्तर-काय के नियमों में काय का परिवर्तन हो जाता है
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१७. ( श्लोक ८५ )
इस श्लोक में अप्काय के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। प्रज्ञापना (पद १) में इसके अधिक प्रकार प्राप्त हैं
उत्तराध्ययन
(१) शुद्धोदक
(२) अवश्याय
(३) हरतनु भूमि को भेद कर निकला हुआ जलबिन्दु (४) महिका कुहासा
(५) हिम
प्रज्ञापना
(१) अवश्याय (२) हिम
(३) माहिका
(४) करक ओला
(५) हरतनु
(६) शुद्धोदक
(७) शीतोदक
(८) उष्णोदक
(E) क्षारोदक
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(१०) खोदक (११) अलोदक
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(१२) लवणोदक (१३) वारुणोदक (१४) क्षीरोदक
(१५) घृतोदक (१६) क्षोदोदक (१७) रसोदक
9. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ ।
२. पण्णवणा, पद १।
३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६८६ ।
४. वही पत्र ६८६ इह च पृथिव्यादयश्चतुर्दश हरितालादयो ऽष्टीगोमेज्जकादयश्च क्वचित्कस्यचित्कथंचिदन्तर्भावाच्चतुर्दशेत्यमीमीलिताः षट्त्रिंशद् भवंति ।
अध्ययन ३६ : श्लोक ८१-६६ टि० १६-१८
(श्लोक ९३-९९)
वनस्पति के मुख्य वर्ग दो हैं
(१) साधारण - शरीर जिसके एक शरीर में अनंत जीव होते हैं, उसे 'साधारण शरीर' कहा जाता है। (२) प्रत्येक - शरीर — जिसके एक-एक शरीर में एक-एक
जीव होता है, उसे 'प्रत्येक शरीर' कहा जाता है। सूत्रकार ने साधारण - शरीर से पूर्व प्रत्येक शरीर वनस्पति के बारह प्रकार बतलाए हैं
(१)
१८.
(२) गुच्छ— जिसमें केवल पत्तियां या पतली टहनियां फैली हों, वह पौधा। जैसे—बैंगन, तुलसी आदि । (३) गुल्म-जो एक जड़ से कई तनों के रूप में
निकले, वह पौधा । जैसे—कटसरैया, कबैर आदि । (४) लता - पृथ्वी पर या किसी बड़े पेड़ पर लिपट कर ऊपर फैलने वाला पौधा । जैसे - माधवी, अति-मुक्तक आदि ।
बल्ली— ककड़ी आदि की बेल ।
(५)
(६)
(७)
वृक्ष - एक बीज वाले नीम आदि; अनेक बीज वाले बेल आदि ।
(८)
(६)
तृण - घास ।
लता - वलय- नारियल, खजूर, केला आदि। इनके दूसरी शाखा नहीं होती। इसलिए इन्हें 'लता' और इनकी डाल वलयाकार होती है, इसलिए इन्हें 'वलय' (संयुक्त रूप में लता-वलय) कहा गया है ।
पर्वज - ईख आदि ।
कुहुण - भूमि को फोड़ कर निकलने वाला पौधा । जैसे— सर्पच्छत्र, कुकुरमुत्ता आदि ।
(१०) जलरुह जलज वनस्पति — कमल आदि । ( ११ ) औषधि तृण – एक फसला पौधा — गेहूं आदि । (१२) हरितकाय - पालक, बथुवा आदि ।
जहां पर एक शरीर में अनन्त जीव निवास करते हों, उसे 'साधारण वनस्पतिकाय' कहते हैं। सभी प्रकार के कंद, मूल तथा अनन्तकायिक साधारण वनस्पति जीव हैं। आलू, मूली, अदरक आदि सब इस श्रेणी के अन्तर्गत हैं।
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कंदली (६७।४) लता विशेष। यह वर्षा ऋतु में होती है। इसका कंद स्निग्ध, पुष्प लाल और पत्ते हरे होते हैं। इसे 'भूकदली' और 'द्रोणपर्णी' भी कहा जाता है। "
५. वही, पत्र ६६० ततो ऽनुवर्तनेनावस्थानं कायस्थितिः ।
६. वही, पत्र ६६० यत् पृथिवीकायाद् उद्वर्त्तनं या च पुनः तत्रैव उत्पत्तिरनयोर्व्यवधानमिति ।
७. शब्दार्णव द्रोणपर्णी स्निग्धकन्दा कन्दली भूकदल्यपि ।
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