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________________ उत्तरायणाणि १८. मिसवं नायव छोड़ उच्चागोए थ वण्णवं । उप्पायंके महापन्ने अभिजाए जसोबले ।। १६. भोच्चा माणुस्सए भोए अप्पडिसवे अहाउयं । पुवं विसुद्धसद्धम्मे केवलं बोहि बुज्झिया ।। २०. चउरंग दुल्लडं मत्ता संजमं पडिवज्जिया । तवसा धुयकम्मंसे सिद्धे हवइ सासए ।। Jain Education International -त्ति बेमि । ६८ मित्रवान् ज्ञातिमान् भवति उच्चैर्गोत्रश्च वर्णवान् । अल्पातङ्कः महाप्रज्ञः अभिजातो यशस्वी बली ।। मुक्या मानुष्यकान् भोगान् अप्रतिरूपान् यथायुः । पूर्व विशुद्धसद्धर्मा केवलां बोधिं बुद्ध्वा ।। चतुरंग दुर्लभं ज्ञात्वा संयम प्रतिपद्य । तपसा तत्कर्मा सिद्धो भवति शाश्वतः ।। --इति ब्रवीमि । अध्ययन ३ : श्लोक १८-२० वे मित्रवान् ज्ञातिमान्, उच्चगोत्र वाले, वर्णवान्, नीरोग, महाप्रज्ञ, अभिजात ( शिष्ट, विनीत ) यशस्वी और बलवान् होते हैं। वे अपनी आयु के अनुसार अनुपम मानवी भोगों को भोगकर, पूर्व जन्म में विशुद्ध सद्धमी (निदान रहित तप करने वाले) होने के कारण सम्पूर्ण बोधि का अनुभव करते हैं। वे उक्त चार अंगों को दुर्लभ मानकर संयम को स्वीकार करते हैं । फिर बचे हुए कर्मों को तपस्या से धुनकर" शाश्वत सिद्ध हो जाते हैं। For Private & Personal Use Only - ऐसा मैं कहता हूं। www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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