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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३ : श्लोक ६-१७
'आहच्च' श्रवणं लब्ध्वा श्रद्धा परम-दुर्लभा। श्रुत्वा नैर्यातृकं मार्ग बहवः परिभ्रश्यन्ति।।
कदाचित् धर्म सुन लेने पर भी उसमें श्रद्धा" होना परम दुर्लभ है। बहुत लोग मोक्ष की ओर ले जाने वाले" मार्ग को सुनकर भी उससे भ्रष्ट हो जाते हैं।
श्रुति और श्रद्धा प्राप्त होने पर भी संयम में वीर्य (पुरुषार्थ) होना अत्यन्त दुर्लभ है। बहुत लोग संयम में रुचि रखते हुए भी उसे स्वीकार नहीं करते।
६. आहच्च सवणं लर्छ ।
सद्धा परमदुल्लहा। सोच्चा नेआउयं मग्गं
बहवे परिभस्सई।। १०.सुइं च लधु सद्धं च
वीरियं पुण दुल्लहं। बहवे रोयमाणा वि
नो एणं पडिवज्जए।। ११.माणुसत्तंमि आयाओ
जो धम्म सोच्च सद्दहे। तवस्सी वीरियं लथु
संवुडे निधुणे रयं ।। १२.सोही उज्जुयभूयस्स
धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। निव्वाणं परमं जाइ
घयसित्त व्व पावए।। १३.विगिंच कम्मुणो हेउं
जसं संचिणु खंतिए। पाढवं सरीरं हिच्चा
उड्ढं पक्कमई दिसं।। १४.विसालिसेहिं सीलेहिं
जक्खा उत्तरउत्तरा। महासुक्का व दिप्पंता मन्नंता अपुणच्चवं ।।
श्रुति च लब्ध्वा श्रद्धां च वीर्य पुनर्दुर्लभम्। बहवो रोचमाना अपि नो एतद् प्रतिपद्यते।। मानुषत्वे आयातः यो धर्म श्रुत्वा श्रद्धत्ते। तपस्वी वीर्य लब्ध्वा संवृतो निथुनोति रजः।। शोधिः ऋजुकभूतस्य धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति। निर्वाणं परमं याति घृतसिक्तः इव पावकः।।
मनुष्यत्व को प्राप्त कर जो धर्म को सुनता है, उसमें श्रद्धा करता है, वह तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर संवृत हो कर्मरजों को धुन डालता है।
शुद्धि उसे प्राप्त होती है, जो ऋजुभूत होता है। धर्म उसमें ठहरता है जो शुद्ध होता है। जिसमें धर्म ठहरता है वह घृत से अभिषिक्त अग्नि की भांति परम निर्वाण (समाधि) को प्राप्त होता है। कर्म के हेतु को दूर कर।' सहिष्णुता से यश (संयम) का संचय कर। ऐसा करने वाला पार्थिव शरीर को२२ छोड़कर ऊर्ध्व दिशा-स्वर्ग को प्राप्त होता है।२३
वेविग्धि कर्मणो हेतुं यशः सञ्चिनु क्षान्त्या। पार्थिवं शरीरं हित्वा ऊर्ध्वा प्रक्रामति दिशम्।।
विसदृशैः शीलैः यक्षाः उत्तरोत्तराः। महाशुक्लाः इव दीप्यमानाः मन्यमाना अपुनश्च्यवम् ।।
१५.अप्पिया देवकामाणं
कामरूवविउव्विणो। उड्ढं कप्पेसु चिट्ठति
पुव्वा वाससया बहू।। १६.तत्थ ठिच्चा जहाठाणं
जक्खा आउक्खए चुया। उति माणुसं जोणिं से दसंगेऽभिजायई।।
अर्पिता देवकामान् कामरूपविकरणाः। ऊर्ध्व कल्पेषु तिष्ठन्ति पूर्वाणि वर्षशतानि बहूनि।। तत्र स्थिरत्वा यथास्थानं यक्षा आयुःक्षये च्युताः। उपयन्ति मानुषीं योनि स दशांगोऽभिजायते।।
विविध प्रकार के शीलों की आराधना के कारण जो देव" उत्तरोत्तर--कल्पों व उसके ऊपर के देवलोकों की आयु का भोग करते हैं, वे महाशुक्ल" (चन्द्र-सूर्य) की तरह दीप्तिमान होते हैं। 'स्वर्ग से पुनः च्यवन नहीं होता' ऐसा मानते हैं।२६ वे दैवी भोगों के लिए अपने आपको अर्पित किए हुए रहते हैं, इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं२७ तथा सैकड़ों पूर्व-वर्षों तक-असंख्य काल तक ऊर्ध्ववर्ती कल्पों में रहते हैं। वे देव उन कल्पों में अपनी शील-आराधना के अनुरूप स्थानों में रहते हुए आयु-क्षय होने पर वहां से च्युत होते हैं। फिर मनुष्य-योनि को प्राप्त होते हैं। वे वहां दस अंगों वाली भोग सामग्री से युक्त होते हैं। क्षेत्र-वास्तु, स्वर्ण, पशु और दास-पौरुषेय-जहां ये चार काम-स्कन्ध होते हैं, उन कुलों में वे उत्पन्न होते हैं।
१७.खेत्तं वत्थु हिरण्णं च
पसवो दास-पोरुसं। चत्तारि कामखंधाणि तत्थ से उववज्जई।।
क्षेत्रं वास्तु हिरणयञ्च पशवो दास-पौरुषेयं। चत्वारः कामस्कन्धाः तत्र स उपपद्यते।।
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