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________________ टिप्पण अध्ययन ३० : तपो-मार्ग-गति १. बाह्य और आभ्यन्तर (बाहिरब्भतरो) (३) वृत्ति-संक्षेप, (४) रस-परित्याग, (५) काय-क्लेश और स्वरूप और सामग्री के आधार पर तप को दो भागों में (६) विविक्त शय्या। विभक्त किया गया है-(१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर। बाह्य-तप के परिणाम बाह्य-तप-अनशन आदि निम्न कारणों से बाह्य-तप कहलाते बाह्य-तप के निम्न परिणाम होते हैं १. सुख की भावना स्वयं परित्यक्त हो जाती है। (१) इनमें बाहरी द्रव्यों की अपेक्षा होती है; अशन, २. शरीर कृश हो जाता है। पान आदि द्रव्यों का त्याग होता है, ३. आत्मा संवेग में स्थापित होती है। (२) ये सर्वसाधारण के द्वारा तपस्या के रूप में स्वीकृत ४. इन्द्रिय-दमन होता है। होते हैं, ५. समाधि-योग का उपयोग होता है। (३) इनका प्रत्यक्ष प्रभाव शरीर पर अधिक होता है और ६. वीर्य-शक्ति का उपयोग होता है। (४) ये मुक्ति के वहिरंग कारण होते हैं।' ७. जीवन की तृष्णा विच्छिन्न होती है। मूलाराधना के अनुसार जिसके आचरण से मन दुष्कृत ८. संक्लेश-रहित दुःख-भावना (कष्ट-सहिष्णुता) का के प्रति प्रवृत्त न हो, आंतरिक-तप के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो अभ्यास होता है। और पूर्व-गृहीत योगों-स्वाध्याय आदि योगों या व्रत विशेषों ६. देह, रस और सुख का प्रतिबन्ध नहीं रहता। की हानि न हो, वह 'बाह्य-तप' होता है। १०. कषाय का निग्रह होता है। आभ्यन्तर-तप---प्रायश्चित्त आदि निम्न कारणों से ११. विषय-भोगों के प्रति अनादर (उदासीन भाव) उत्पन्न आभ्यंतर तप कहलाते हैं : होता है। १. इनमें बाहरी द्रव्यों की अपेक्षा नहीं होती, १२. समाधि-मरण का स्थिर अभ्यास होता है। २. ये विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा ही तप-रूप में १३. आत्म-दमन होता है। आहार आदि का अनुराग स्वीकृत होते हैं, क्षीण होता है। ३. इनका प्रत्यक्ष प्रभाव अन्तःकरण में होता है और १४. आहार-निराशता--आहार की अभिलाषा के त्याग ४. ये मुक्ति के अन्तरंग कारण होते हैं।' का अभ्यास होता है। महर्षि पतञ्जलि ने भी योग के अंगों को अन्तरंग और १५. अगृद्धि बढ़ती है। बहिरंग-इन दो भागों में विभक्त किया है। धारणा, ध्यान और १६. लाभ और अलाभ में सम रहने का अभ्यास सधता समाधि-ये पूर्ववर्ती यम आदि पांच साधनों की अपेक्षा अन्तरंग हैं। निर्बीज-योग की अपेक्षा ये बहिरंग भी हैं। इसका फलितार्थ १७. ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। यह है कि यम आदि पांच अंग बहिरंग हैं और धारणा आदि १८. निद्रा-विजय होती है। तीन अंग अन्तरंग और बहिरंग-दोनों हैं। निर्वीज-योग केवल १६. ध्यान की दृढ़ता प्राप्त होती है। अन्तरंग हैं। २०. विमुक्ति (विशिष्ट त्याग) का विकास होता है। बाह्य-तप के प्रकार २१. दर्प का नाश होता है। बाह्य-तप के छह प्रकार हैं--(१) अनशन, (२) अवमौदर्य, २२. स्वाध्याय-योग की निर्विघ्नता प्राप्त होती है। १. बृहवृत्ति, पत्र ६००। २. मूलाराधना, ३।२३६ : सो णाम बाहिरतवो, जेण मणो दुक्कडं ण उठेदि। जेण य सट्टा जायदि, जेण य जोगा ण हायंति।। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०० : 'बाह्यं' बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात् प्रायो मुक्त्यवाप्तिबहिर- गत्वाच्च 'अभ्यन्तरं' तद्विपरीतं, यदिवा 'लोकप्रतीतत्वात्कुतीर्थिकैश्च' स्वाभिप्रायेणासेव्यमानत्वाद्बाह्यं तदितरत्त्वाभ्यन्तरम्, उक्तञ्च"लोके परसमयेषु च यत्प्रथितं तत्तपो भवति बाह्यम्। आभ्यन्तरमप्रथितं कुशलजनेनैव तु ग्राह्यम्।।" अन्ये त्वाहुः-"प्रायेणान्तःकरणव्यापाररूपमेवाभ्यन्तरं, बाह्यं रचन्यथे" ति। ४. पातञ्जलयोगदर्शन, ३७, ८ : त्रयमन्तरङ्गः पूर्वेभ्यः । तदपि बहिरङ्गः निीजस्य।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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