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________________ उत्तरज्झयणाणि ५१२ अध्ययन ३० : श्लोक ६ टि० २ २३. सुख-दुःख में सम रहने की स्थिति बनती है। आदि वैयावृत्त्य के परिणाम हैं।' २४. आत्मा, कुल, गण, शासन-सबकी प्रभावना होती प्रज्ञा का अतिशय, अध्यवसाय की प्रशस्तता, उत्कृष्ट संवेग का उदय, प्रवचन की अविच्छिन्नता, अतिचार-विशुद्धि, २५. आलस्य त्यक्त होता है। सन्देह नाश, मिथ्यावादियों के भय का अभाव आदि स्वाध्याय २६. कर्म-मल का विशोधन होता है। के परिणाम हैं। २७. दूसरों को संवेग उत्पन्न होता है। कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक २८. मिथ्या-दृष्टियों में भी सौम्यभाव उत्पन्न होता है। दुःखों से बाधित न होना तथा सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास आदि २६. मुक्ति-मार्ग का प्रकाशन होता है। शरीर को प्रभावित करने वाले कष्टों से बाधित न होना ध्यान ३०. तीर्थकर की आज्ञा की आराधना होती है। के परिणाम हैं। ३१. देह-लाघव प्राप्त होता है। निर्ममत्व, निर्भयता, जीवन के प्रति अनासक्ति, दोषों का ३२. शरीर-स्नेह का शोषण होता है। उच्छेद, मोक्ष-मार्ग में तत्परता आदि व्युत्सर्ग के परिणाम हैं। ३३. राग आदि का उपशम होता है। २. इत्वरिक (इत्तिरिया) ३४. आहार की परिमितता होने से नीरोगता बढ़ती है। औपपातिक (सूत्र १६) में इत्चरिक के चौदह प्रकार ३५. संतोष बढ़ता है। बतलाए गए हैंबाह्य-तप का प्रयोजन १. चतुर्थ भक्त-उपवास। १. अनशन के प्रयोजन : १. संयम-प्राप्ति २. राग-नाश २. षष्ट-भक्त-२ दिन का उपवास। ३. कर्म-मल-विशोधन ४. सद्ध्यान की प्राप्ति और ५. शास्त्राभ्यास। ३. अष्टम-भक्त-३ दिन का उपवास। २. अवमौदर्य के प्रयोजन : १. संयम में सावधानता २. ४. दशम-भक्त-४ दिन का उपवास। बात, पित्त, श्लेष्म आदि दोषों का उपशमन और ३. ज्ञान, ५. द्वादश-भक्त-५ दिन का उपवास । ध्यान आदि की सिद्धि। ६. चतुर्दश-भक्त-६ दिन का उपवास। ३. वृत्ति-संक्षेप के प्रयोजन : १. भोजन-सम्बन्धी आशा ७. षोडश-भक्त-७ दिन का उपवास। पर अंकुश और २. भोजन-सम्बन्धी संकल्प-विकल्प तथा ८. अर्धमासिक-भक्त-१५ दिन का उपवास। चिंता का नियंत्रण। ६. मासिक-भक्त-१ मास का उपवास। ४. रस-परित्याग के प्रयोजन : १. इन्द्रिय-निग्रह २. १०. द्वैमासिक-भक्त-२ मास का उपवास। निद्रा-विजय और ३. स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि। ११. त्रैमासिक-भक्त-३ मास का उपवास। ५. विविक्त-शय्या के प्रयोजन : १. बाधाओं से मुक्ति १२. चतुर्मासिक-भक्त-४ मास का उपवास। २. ब्रह्मचर्य-सिद्धि और ३. स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि। १३. पंचमासिक-भक्त-५ मास का उपवास। ६. काय-क्लेश के प्रयोजन : १. शारीरिक कष्ट-सहिष्णुता १४. छहमासिक-भक्त–६ मास का उपवास। का स्थिर अभ्यास २. शारीरिक सुख की वाञ्छा से मुक्ति और इत्वरिक-तप कम से कम एक दिन और अधिक से ३. जैन धर्म की प्रभावना। अधिक ६ मास तक का होता है। आभ्यन्तर-तप के प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में इत्वरिक-तप छह प्रकार का बतलाया आभ्यन्तर-तप के छह प्रकार हैं-(१) प्रायश्चित्त, गया है—(१) श्रेणि तप, (२) प्रतर तप, (३) घन तप, (४) वर्ग (२) विनय, (३) वैयावृत्त्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और तप, (५) वर्ग-वर्ग तप और (६) प्रकीर्ण तप। (६) व्युत्सर्ग। (१) श्रेणि तप-उपवास से लेकर छह मास तक क्रमपूर्वक आभ्यन्तर-तप के परिणाम जो तप किया जाता है, उसे श्रेणि तप कहा जाता है। इसकी भाव-शुद्धि, चंचलता का अभाव, शल्य-मुक्ति, धार्मिक- अनेक अवान्तर श्रेणियां होती हैं। जैसे-उपवास, बेला—यह दृढ़ता आदि प्रायश्चित्त के परिणाम हैं। दो पदों का श्रेणि तप है। उपवास, बेला, तेला, चोला---यह ज्ञान-लाभ, आचार-विशुद्धि, सम्यक् आराधना आदि विनय चार पदों का श्रेणि तप है। के परिणाम हैं। (२) प्रतर तप-यह श्रेणि तप को जितने क्रम-प्रकारों चित्त-समाधि का लाभ, ग्लानि का अभाव, प्रवचन-वात्सल्य से किया जा सकता है, उन सब क्रमों-प्रकारों को मिलाने से १. मूलाराधना, ३१२३७-२४४। ५. वही, ६२४, श्रुतसागरीयवृत्ति। २. तत्त्वार्थ, ६२०, श्रुतसागरीयवृत्ति। ६. वही, ६२५, श्रुतसागरीयवृत्ति। ३. वही, ६२२, श्रुतसागरीयवृत्ति । ७. ध्यानशतक, १०५-१०६ । ४. वही, ६२३, श्रुतसागरीयवृत्ति। ८. तत्त्वार्थ, ६२६, श्रुतसागरीयवृत्ति। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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