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________________ यज्ञीय ४०७ अध्ययन २५ : श्लोक २७-३२ टि० १६-२२ सकता। गुप्ति-युक्त मैथुन-विरति ३. गुरुकुलवास। १९. निष्कामजीवी है (मुहाजीवी) सूत्रकृतांग २।५।१ में 'बंभचेर' की व्याख्या में चूर्णिकार __ जो प्रतिफल की भावना से शून्य होकर जीवन-यापन ने आचार, आचरण, संयम, संवर और ब्रह्मचर्य को एकार्थ करता है, वह मुधाजीवी कहलाता है। बहवत्ति में इसका अर्थ माना है।' तउंछमात्रवृत्ति । जो मनि जाति, कल आदि के सहारे आचारांग ३।४ में ब्रह्म का अर्थ-योगियों का परम नहीं जीता, अज्ञात रहकर उछ भोजन से अपना जीवन चलाता पवित्र सुख किया है। है, वह मुधाजीवी होता है। ३. मुणी विस्तृत अर्थ के लिए देखें-दसवेआलियं ५।१।६६,१०० सामान्यतया मुनि का अर्थ मौन रहने वाला किया जाता का टिण्ण। है। यहां यह अर्थ अभिप्रेत नहीं है। मुनि कहलाने का आधार २०. (श्लोक ३०) है ज्ञान। यह ज्ञानार्थक मुण् धातु से निष्पन्न है। १. समन २१. (श्लोक ३१) इसके संस्कृत रूप तीन होते हैं— श्रमण, शमन और प्रस्तुत श्लोक में जन्मनाजाति का अस्वीकार और समनस्। जो श्रमशील है वह श्रमण, जो कषायों का शमन कर्मणाजाति का सिद्धांत प्रतिपादित है। जातियां सामयिक करता है और समता में रहता है वह शमन और जो अच्छे आवश्यकता के अनुसार बनती हैं। वे शाश्वत नहीं होती मन वाला होता है वह समनस् होता है। वृत्ति में 'श्रमण' का महावीर ने जन्मना जातिवाद के विरुद्ध क्रांति की और निरुक्त इस प्रकार किया है---'समं मनोऽस्येति निरुक्तविधिना कर्मणाजाति का प्रतिपादन किया। व्यक्ति अपने कर्म-कार्य से श्रमण:-निर्ग्रन्थः। अमुक-अमुक होता है। किसी कुल या जाति में जन्म लेने मात्र २. बंभणो से वैसा नहीं हो जाता। जो ब्रह्म-आत्मा की चर्या में लीन रहता है, वह ब्राह्मण २२. सब कर्मों से मुक्त (सब्बकम्मविनिमुक्क) है। जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह ब्राह्मण है। ब्रह्म के प्रस्तुत चरणों में कर्म शब्द कार्य या प्रवृत्ति का वाचक दो प्रकार हैं-शब्दब्रह्म और परब्रह्म। जो शब्दब्रह्म में निष्पात है। स्नातक पुरुष जीववध वाले यज्ञ की व्यर्थता और जातिवाद होता है, वह परब्रह्म को पा लेता है। परब्रह्म है अहिंसा, सत्य की अतात्विकता समझ लेता है। वह यजन-याजन तथा घृणापूर्ण आदि। ब्रह्म शब्द से यहां ये ही गृहीत है।' ___ भर्तृहरि ने शब्द को ब्रह्म माना है। शंकराचार्य अथवा केवली की मुक्ति सन्निकट होने के कारण उसे अद्वैत का ब्रह्म परमब्रह्म है। सर्वकर्मविनिर्मुक्त कहा गया है। यह वृत्तिकार की व्याख्या है।' सूत्रकृतांग १४१ में 'सुवंभचेरं' शब्द का प्रयोग है। वहां किन्तु यहां ब्राह्मण के प्रकरण में केवली का उल्लेख प्रासंगिक चूर्णिकार ने उसके तीन अर्थ किए हैं—१. सुचारित्र २. नौ नहीं लगता। ता है। ब्रह्म के है। स्नातकता समझ लेतमायों से मुक्त लेता है। परब्रह्म है अहिंसा, सत्य प्रवृत्ति और आसक्तिपूर्ण काम होने के कारण उसे १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२८ : ब्रह्मणश्चरणं ब्रह्मचर्य, ब्रह्म च द्विधा, यत उक्तम्--'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये, शब्दब्रह्मपरं च यत्। शब्दब्रह्मणि निष्णातः, परं ब्रह्माधिगच्छति। एतानि च पराणि ब्रह्माणि वरिष्ठानि यानि प्रागहिंसादीन्युक्तानि, एतद् रूपमेवेह ब्रह्मोच्यते, तेन ब्राह्मणो भवति। २. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ० २२८ । ३. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ० ४०३। ४. आचारांग वृत्ति, पत्र १३६ : ब्रह्म-अशेषमलकलंकविकलयोगिशर्म। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२६ : स्नातकः केवली सर्वकर्मभिर्विनिर्मुक्तः, इह च प्रत्यासन्नमुक्तितया सर्वकर्मविनिर्मुक्तः। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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